जन्माष्टमी के बहाने श्रीकृष्ण !!

श्रीकृष्ण
अर्थात हजार वर्षों से व्यक्त और अव्यक्त रूप से भारतीय समाज में व्याप्त एक कालजयी चरित्र- एक युगपुरुष।

श्रीकृष्ण शब्द ही भारतीय जीवन-प्रणाली का अनन्य उदगार है। आकाश में तपता सूरज जिस प्रकार कभी पुराना नहीं हो सकता, उसी प्रकार महाभारत कथा का मेरुदण्ड यह तत्वज्ञ वीर भी कभी भारतीय मानस-पटल से विस्मृत नहीं किया जा सकता। जन्मतः ही दुर्लभ रंगसूत्र प्राप्त होने के कारण कृष्ण के जीवन-चरित्र में, भारत को नित्यनूतन और उन्मेषशाली बनाने की भरपूर सामर्थ्य है।

कृष्ण का चरित्र विसंगतियों से भरा पड़ा है। वे रागी भी हैं, विरागी भी; योगी भी हैंभोगी भीनर भी हैंनारायण भीरण-दुर्मद भी हैं, और रणछोड़ भीचक्रधर भी हैं और मुरलीधर भी। इतनी विसंगतियों को संगति देना साधारण कार्य नही है। बाल्यावस्था में ही अलग-अलग नाम और रूप धारण करनेवाले, असुर-राक्षसों का खेल-खेल में अंत करने वाले गोपालकृष्ण के रूप में? जलक्रीड़ा करनेवाली गोपियों के वस्त्र चुराने वाले कन्हैया के रूप में? पहले गोपालों के मुखिया और बाद में यादवों के प्रमुख यौद्धा के रूप में? ‘अवतारउपाधि का मोहक वस्त्र ओढ़नेवाले ऐन्द्रजालिक कृष्ण के रूप में ? सही समय पर द्रोपदी कि लज्जा-रक्षा हेतु वस्त्र दिलानेवाले चमत्कारी वासुदेव के रूप में? या यों कहिये कि १८ अक्षोहिणी बलवान यौद्धाओं का लोमहर्षक, प्राणघाती, अनावश्यक महासंग्राम रचानेवाले विक्षिप्त खिलाड़ी के रूप में।

गीता में उन्होंने अपने प्रिय सखा पार्थ से कहा है कि ऐसा समय न कभी था और न कभी होगा, जब तुम नहीं थे और मैं नहीं था।" यह वह बात उन्होंने सिर्फ अर्जुन से ही नहीं कही थी। हर सजीव से, हर स्त्री-पुरुष से कही थी, और वह भी सदा के लिए- "तत्व-रूप से, विचार-रूप से आज भी प्रत्येक चराचर में मैं विद्धमान हूँ"।

कृष्ण यह आक्षेप लगते है तुम लोग ये सारे रूप थोपकर ही आज तक मुझे अपने-आप से बहुत दूर रखा है- जानबूझ कर, बड़ी कुशलता से! मंदिर में केवल पूजा करने योग्य देवता बना रखा है आप सबने मुझे! यह आसान भी है और सुविधापूर्ण भी।
मैं विष्णु का अंश हूँइस कथन को मानने के लिए तो आप बड़ी सरलता से और प्रसन्नता से तैयार थेआज भी है और कल भी रहेंगे। शताब्दियों से मैं आग्रहपूर्वक कहता आया हूँ, “मैं अंश रूप में हर-एक के भीतर विद्धमान हूँ परन्तु इस कथन को मानने कोजानने को आप तैयार नहीं है। ऐसा क्यूँ?

कृपा करके मुझे अपने से दूरमंदिर में स्थित वासुदेवन मानिये।

जिसे हम नहीं समझ पाते उसे हम भगवान कहना शुरू कर देते हैंउसकी पूजा शुरू हो जाती है। भगवान कहने का मतलब है कि जैसे हम भगवान को नहीं समझ पा रहे हैं वैसे ही इस वयक्ति को नहीं समझ पा रहे हैं। जैसे भगवान सदा ही जानने को शेष रह जाता है वैसे ही कृष्ण भी शदियों से जानने- समझने के लिए शेष रह गए हैं।


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