चंपारण यात्रा

चम्पारण: जिसने गाँधी को महात्मा बना दिया !!

इस अवसर का वर्णन करते हुये राजेन्द्र बाबू लिखते हैं- ता. 18 अप्रैल 1917 चम्पारण के इतिहास में ही नहीं वरन भारतवर्ष के वर्तमान इतिहास में एक बड़े महत्व का दिन है। आज जगत विख्यात सर्वश्रेष्ठ न्यायकारी एवं प्रतापी राजर्षि राजा- जनक के देश में आकर यहाँ की दरिद्र एवं दुखी प्रजा के हित के लिए महात्मा गाँधी जेल जाने की तैयार कर रहे हैं।
18 अप्रैल को गाँधी निश्चित समय पर कोर्ट पहुँचे। जब महात्मा से हाकिम ने पूछा- ‘आपके पास कोई वकील है?’
महात्मा ने उत्तर दिया – ‘कोई नहीं’।
सरकारी वकील ने अपना अभियोग पत्र पढ़ा। गाँधी जी ने कहा- मैंने आज्ञा भंग करने का कारण जिला अधिकारी को भेज दिया था। उस पत्र को इसमें शामिल कर लिया जाये। मजिस्ट्रेट ने कहा कि वह पत्र यहाँ नहीं है। आप आवेदन दीजिए। कोर्ट में गाँधी जी ने बयान इस प्रकार दिया – 
‘अदालत की आज्ञा से मैं संक्षेप में यह बतलाना चाहता हूँ कि नोटिस द्वारा जो मुझे आज्ञा दी गयी थी उसकी अवज्ञा मैंने क्यूँ की थी? मेरी समझ में यह स्थानीय अधिकारीयों ओर मेरे बीच में मतभेद का प्रश्न है। मैं इस देश में राष्ट्रिय तथा मानव सेवा करने के विचार से आया हूँ। यहाँ आकर उन रैयतों की सहायता करने के लिए, जिनके बारे में कहा जाता है कि नीलवर साहब अच्छा व्यवहार नहीं करते, मुझसे बहुत आग्रह किया गया था, पर जब तक मैं सब बातें अच्छी तरह जान न लेता, तब तक उनलोगों की कोई सहायता नहीं कर सकता था। इसलिए मैं यदि हो सके तो अधिकारीयों ओर नीलवरों की सहायता से सब बातें जानने के लिए यहाँ आया हूँ। मैं किसी दूसरे उद्देश्य से यहाँ नहीं आया हूँ। मुझे यह विश्वाश नहीं होता कि मेरे यहाँ आने से किसी प्रकार का शांति भंग या प्राणहानि हो सकती है। मैं कह सकता हूँ कि ऐसी बातो का मुझे बहुत कुछ अनुभव है। अधिकारीयों को जो कठिनाइयाँ होती है, उनको मैं समझता हूँ ओर यह भी मानता हूँ कि उन्हें जो सुचना मिलती है, वे केवल उसी के अनुसार काम कर सकते हैं। कानून मानने वाले व्यक्ति की तरह मेरी प्रवृति यही होनी चाहिए थी ओर ऐसी प्रवृति हुई भी कि मैं इस आज्ञा का पालन करूँ। पर मैं उनलोगों के प्रति जिनके कारण मैं यहाँ आया हूँ, अपने कर्तव्य का उल्लंघन नहीं कर सकता था। मैं समझता हूँ कि मैं उन लोगों के बीच रहकर ही उनकी भलाई कर सकता हूँ। इस कारण मैं स्वेक्षच्चा से इस स्थान से नहीं जा सकता था। दो कर्तव्यों के परस्पर विरोध की दशा में मैं केवल यही कर सकता था कि अपने हटाने की सारी जिम्मेवारी शासकों पर छोड दूँ। मैं भली-भांति जनता हूँ कि भारत के सार्वजनिक जीवन में मेरी जैसी स्थिति वाले लोगों को आदर्श उपस्थित करने में बहुत ही सचेत रहना पड़ता है। मेरा दृढ विश्वास है कि जिस स्थिति में मैं हूँ, उस स्थिति में प्रत्येक प्रतिष्ठित व्यक्ति को वही काम करना सबसे अच्छा है, जो इस समय मैंने करना निश्चय किया है और वह यह है कि बिना किसी प्रकार का विरोध किये आज्ञा न मानने का दंड सहने के लिए तैयार हो जाऊं। मैंने जो बयां दिया है, वह इसलिए नहीं कि जो दंड मुझे मिलने वाला है, वह काम किया जाये, पर इस बात को दिखलाने के लिए कि मैंने सरकारी आज्ञा की अवज्ञा इस कारण से नहीं की है कि मुझे सरकार के प्रति श्रधा नहीं है, बल्कि इस कारण से कि मैंने उससे भी उच्चतर आज्ञा अपनी विवेक बुद्धि की आज्ञा का पालन करना उचित समझा है। 
इस बयान को सुनकर अदालत थर्रा उठी। मजिस्ट्रेट की समझ में यह नहीं आया कि वे अब क्या करें? उन्होंने महात्मा जी से बार-बार पूछा कि आप अपराध स्वीकार करते हैं या नहीं? महात्मा जी ने उत्तर दिया कि मुझे जो कहना था, मैंने अपने बयान में कह दिया। इस पर हाकिम ने कहा कि उसमे अपराध का साफ़ इकरार नहीं है। महात्मा ने कहा कि मैं अदालत का अधिक समय नष्ट नहीं करना चाहता, मैं अपराध स्वीकार कर लेता हूँ। हाकिम ओर्भी घबरा गये। उन्होंने महात्मा से कहा कि यदि आप अब भी जिला छोडकर चलें जायें और न आने का वडा करें, तो यह मुकदमा उठा लिया जायेगा। महात्मा ने उत्तर दिया- ‘यह नहीं हो सकता।‘ इस समय की कौन कहे, जेल से निअकलने पर भी मैं चम्पारण में ही अपना घर बना लूँगा।‘ हाकिम यह दृढता देख अवाक रह गये और उन्होंने कहा कि इस विषय पर में कुछ विचार करने की आवश्यकता है। आप तीन बजे यहाँ आइये, तो मैं हुक्म सुनाऊंगा। ये सब बातें आधे घंटे के भीतर समाप्त हो गयी।
तीन बजे के कुछ पहले ही महात्मा जी मजिस्ट्रेट के इजलास में पहुँच गये। मजिस्ट्रेट ने कहा कि मैं ता. 21 04 1917 को हुक्म सुनाऊंगा और तब तक आप एक सौ रूपये की जमानत दे दीजिए। महात्मा जी ने उत्तर दिया कि मेरे पास कोई जमानतदार नहीं है और न मैं जमानत ही दे सकता हूँ। फिर मुश्किल पड़ी। अंत में मजिस्ट्रेट ने उनसे स्वयं मुचलका लेकर उन्हें जाने की आज्ञा दी।
इस प्रकार गाँधी जी ने बिहार में कदम रखकर मात्र नौ दिन के अंदर ही चम्पारण के निलहे साहबों के मामले में अंग्रेज सर्कार को कटघरे में ला खड़ा कर दिया था।
गाँधी जी द्वारा अंग्रेजी कोर्ट और सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया था। इस कलंक को लेकर कोई भी सरकार प्रजा पर शासन नहीं कर सकती है। जीत की पहली किरण स्पष्ट दिखाई पड़ने लग थी।
21 अप्रैल के पूर्व ही गाँधी जी पर से सारे केस उठा लिए गये। 
गाँधी जी ने चम्पारण सत्याग्रह को अहिंसक सिद्धांत के आधार पर जीत कर दिखलाया था।साथ वर्ष से चली आ रही समस्या एक सप्ताह में ही चरमराने लगी थी। 1918 में "चम्पारण एग्रेरियन एक्ट" बना और 2o फ़रवरी 1918 को यह सरकारी गजट में प्रकाशित हुआ। राजकुमार शुक्ल का भागीरथी प्रयाश सफल हुआ और तीन कठिया प्रथा को हटा लिया गया औ र चम्पारण के रैयतों को नवजीवन मिला। राजेन्द्र बाबू इस पुरे प्रकरण से इतने प्रभावित हुये कि सारा जीवन गाँधी जी के नाम लिख दिया।
......समाप्त।

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