महिला दिवस !!

अधिक सजाने में ही अपना समस्त कौशल व्यय कर दिया। शौर्य-विवेक से वह दूर होती चली गयी। रीतिकालीन साहित्य औरतों के नख-शिख वर्णन और उसके रति श्रृंगार से भरा पड़ा है।
आधुनिक काल के साहित्य में भी स्त्रियों के लिए कहा गया- “अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी / आँचल में है दूध, आँखों में पानी।“
सवाल यह है कि जिन स्त्रियों के लिए कभी हमारे समाज में ‘यत्र पूज्यन्ते नारी रमन्ते तत्र देवता’ का भाव था, उन्ही की आँखों में आज आंसूं किसने भर दिए? वह अबला क्यूँ हो गयी?
आज की नारी और भी अधिक शोषित,पीडित है। बदला है तो बस शोषण करने का स्वरुप। आज नारी जिस स्थिति में है उसे उस स्थिति तक पहुँचाया किसने? मैने, आपने और इस समाज ने क्योंकि नारी को नारी हमने बनाया। अबला, निरीह हमने बनाया है । जब एक बच्चा जन्म लेता हैं तब उसे खुद पता नहीं होता कि वह क्या हैं। अबला नारी का रुप ले लेता है क्यों आखिर क्यों जबाब नही क्योंकि औरत को औरत बनाने वाली भी औरत ही होती है। वो औरत जो आधी आबादी का हिस्सा है जो आदिम युग से अपने त्याग बलिदान के कारण वन्दनीय रही है। आज की नारी जो पढ़ी लिखी, सुसज्जित है। आँखिर क्यों शिकंजो से आजाद नही हो पा रही है।
जब नारी ही नारी को न तो समझ पायी है आज तक न सम्मान दे पायी तो यह प्रश्न तो पुरुषो के पाले में डालना अभी जरा जल्दबाजी होगी। सबसे पहले नारी खुद अपना सम्मान करना सिखे और अपने को खुश रखना जाने तभी आपका उचित मूल्यांकन होगा
'महिला-सशक्तिकरण’ शब्द बड़ी धूम मचा रखा है। बड़ा शोर हो रहा हैं ‘मुक्त करो नारी को मानव, चिर बंदनी नारी को’, महिला को ताकतवर बनाओ, उसे पुरुष के बराबर लाओ। जिस देश में स्त्री को स्वयं ही शक्ति स्वरुप माना और जाना गया है उसे शक्ति कौन देगा, और आदिशक्ति, काली, दुर्गा के रूप में महिमा मंडित किया गया है वहां पर महिला सशक्तिकरण की मांग कुछ विचित्र ही लगती है।
महिला सशक्तिकरण का मतलब महिला को सशक्त करना नहीं हैं। बल्कि बहुत सीधा सा अर्थ हैं कि महिला और पुरूष इस दुनिया मे बराबर हैं और ये बराबरी उन्हे प्रकृति से मिली है। महिला सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट के तहत कोई भी महिला किसी भी पुरूष से कुछ नहीं चाहती और ना समाज से कुछ चाहती हैं क्योकि वह अस्वीकार करती हैं कि पुरूष उसका "मालिक" हैं। ये कोई चुनौती नहीं हैं, और ये कोई सत्ता की उथल पुथल भी नहीं हैं ये "एक जाग्रति हैं" कि महिला और पुरूष दोनो इंसान हैं और दोनों समान अधिकार रखते हैं समाज मे। "सशक्तिकरण" का अर्थ हैं कि जो हमारा मूलभूत अधिकार हैं यानी सामाजिक व्यवस्था मे बराबरी की हिस्सेदारी वह हमे मिलना चाहिये।
स्त्रियों के तेज और ओज को स्त्रियोचित चेतना की कसौटी पर ही देखने की आवश्यकता है, तभी उसकी पहचान को नया आयाम मिलेगा तब ही महिला-दिवस की सार्थकता पूर्ण होगी।

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