बिना शिक्षक के पढाई ..... परीक्षा में चोरी तो होगी ही !!

जिस बुनियाद पर हम महल बनाना चाहते हैं उसकी नींव ही कमजोर डाली जाये तो फिर आनेवाले भविष्य में उस महल का क्या होगा? मिटटी के घरोंदे रूपी बच्चों में शिक्षारूपी जल सिंचित कर सफलता की जिन ऊँचाइयों पर हम उन्हें पहुँचाना चाहते हैं, उन्हें संस्कार का छोटा सा पाठ पढाने में हम कहाँ चूक जाते हैं? शिक्षित होना अलग बात है लेकिन उसे आत्मसात करना अलग बात। मैट्रिक और इंटर की परीक्षा में सेकड़ो बच्चे नक़ल करते हुए पकडे जा रहे हैं। इनके अलावा कितने ही ऐसे बच्चे हैं जो पकडे नहीं गए और अपनी बहादुरी पर इठला रहे हैं। कदाचारमुक्त परीक्षा के तमाम दावों पर हजारों रूपये खर्च कर दिए जाते हैं, समिति, कमिटी से लेकर बड़े बड़े अधिकारियों की टीम गठित की जाती है लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि जिंदगी की पहली सीढ़ी को पार कर देश का नाम रौशन करने वाले ये बच्चे आखिर परीक्षाओं में कदाचार में लिप्त क्यों पाए जाते हैं?
गौरतलब है कि आत्मविश्वास की कमी, असफल होने का डर, मनोवैज्ञानिक दबाव और विषयों की गहरी समझ ना होने के कारण वे सफल होने का शॉर्टकट ढूंढते हैं। जिसमे अभिभावकों की भी सहमति होती है। दरअसल दोष सिर्फ़ बच्चों का ही है ऐसी बात भी नही है, विद्यालयों में जो संस्कार और जो शिक्षा इन्हें मिलनी चाहिए वो नहीं मिलता। आत्मविश्वास की भावना विकसित करने का जो काम शिक्षकों को करना चाहिए उन्हें करने में वो असफल रहते हैं। यहीं पर शिक्षा व्यवस्था की खामियां सामने आती हैं। कभी सामाजिक सदभाव और आपसी सहिष्णुता का पाठ पढाने वाले विद्यालय आज अपनी गरिमा को खोकर निजी स्वार्थ के रास्ते पर अग्रसर हो चुका है। मतलब भरे इस सामाजिक व्यवस्था में शिक्षा का मंदिर भी खुदगर्जी का शिकार हो चुका है। इसलिए शिक्षा से गुणवत्ता गायब है।
मध्यमवर्गीय परिवारों से आनेवाले ये बच्चे खुद नहीं जानते की ऐसा करके वो अपने ही पैरों में खुद कुल्हाडी मार रहे हैं| परीक्षा में सफल होने के लिए नक़ल का रास्ता अपनाते अपनी जिंदगी को धोखा देते हैं। ज्यादातर अभिभावकों की सोच यही रहती है इनके बच्चे किसी तरह से पास कर जाएँ। आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नही होती कि अपने बच्चे को दोबारा परीक्षा में बैठने की फीस भर सकें। इनके निम्न सोच के लिए हम इन्हें भी दोष नहीं दे सकते क्योंकि पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था ने इनके पैरों में बेडियाँ डाली हुई हैं, और ये चाहकर भी उससे तोड़ नहीं सकते।
ये स्थिति तबतक बने रहेगी जबतक शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जायेगी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जायेगा। सरकारी विद्यालयों में ऐसी व्यवस्था विकसित करनी पड़ेगी कि वहाँ पढ़ने वाले बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की कतार में शामिल हो सकें। साथ ही साथ बच्चों में आत्मविश्वास की भावना विकसित करना भी ज़रुरी है।
दरअसल विभिन्न राज्य सरकारों को यह बात समझ ही नहीं रही है कि बच्चों की पढाई और मिड डे मिल, साइकिल, ड्रेस, लैपटॉप में सीधा सम्बन्ध नहीं है बल्कि पढाई का सीधा सम्बन्ध है शिक्षकों से और उनकी योग्यता से है। सरकार द्वारा गठित बोर्ड और कौंसिल जो प्रतिवर्ष लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा लेकर उत्तीर्णता का प्रमाण-पत्र देती है खुद ही शिक्षा-व्यवस्था और शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के मोर्चे पर साल-दर-साल फेल हो रही है।बिहार तो इस मामले में प्रथम पंक्ति में भी अग्रणी रहा है अथवा कहूँ तो आज भी अपने को इन मामलों में श्रेष्ठ रखने में सफल रहा है। यहाँ लालकेश्वर और परमेश्वर की जोड़ी ने तो अच्छो अच्छों की नींद उडा दी है। एक मेट्रिक और इंटर पास कराने की गारंटी लेता है तो दूसरा उस कागज के टुकड़े(डिग्री) पर शर्तिया नौकरी देने की माद्दा रखता है। ऐसे ऐसे नौकरशाहों के नाम उजागर हो रहे हैं कि सामान्य जनता तो दांतों तले उंगली दबाने को विवश हो रही है। मामले का सबसे निराशाजनक पहलू तो यह है कि आगे सरकार की यह मंशा भी नहीं दिख रही है कि शिक्षा की स्थिति में सुधार हो और वह आईसीयू से बाहर आकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करे।

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