गंगा नदी हादसा

ार्मिक स्थानों पर जाते हैं। उनकी इसी आस्था के कारण जगह-जगह पर अनेक धार्मिक स्थल मिल जाएंगे। चाहे कई-कई कोस तक कोई अस्पताल या स्कूल न हो, लेकिन कोई न कोई देवालय अवश्य ही मिल जाएगा। 

प्रश्न उठता है कि क्या पूजा-पाठ अथवा इबादत के लिए विशाल भव्य मंदिर व आकर्षक मूर्तियां अथवा अन्य पूजा-स्थल जरूरी हैं? मंदिर एक पावन स्थल माना जाता है, इसमें संदेह नहीं। लेकिन मंदिर को यह पावनता कौन प्रदान करता है? यह श्रद्धालुओं की भावना ही तो है, जो किसी पूजा-स्थल अथवा इबादतगाह को पवित्रता का दर्जा देती है।

यदि भावना शुद्ध हो तो ईंट-पत्थरों से बने निर्जीव ढांचे की क्या जरूरत है? वास्तव में कोई व्यक्ति शुद्ध भावना से जहां भी रहेगा, वही स्थल मंदिर की तरह हो जाएगा। जिस घर में सभी सदस्य शुद्ध भावना से निवास करेंगे, वह घर मंदिर सदृश हो जाएगा। मंदिर अथवा पूजा स्थल साधन हैं शुद्ध भावना विकसित करने के, साध्य नहीं।

हमारा घर किसी मंदिर से कम नहीं होता, लेकिन ईंट-गारे अथवा संगमरमर से निर्मित कोई मकान अथवा भव्य प्रासाद भी वास्तव में घर नहीं कहला सकता, जब तक कि उस स्थान पर रहने वालों के बीच सामंजस्य न हो। इस सामंजस्य का निर्माण कौन करता है?

इस सामंजस्य का निर्माण करती है घर में रहने वाले सदस्यों की भावना, उनका प्रेम। साथ रहने वालों में सहयोग की भावना, उनका निश्छल प्रेम। एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव सिर्फ आलीशान कोठियों को ही नहीं, झोंपडि़यों को भी घर बनाए रखता है। ऐसे ही किसी भी घर को मंदिर बनाया जा सकता है।

जब ईंट-गारे अथवा संगमरमर से निर्मित कोई मकान अथवा भवन घर नहीं हो सकता, तो मंदिर भी नहीं हो सकता। सात्विक भावों की सृष्टि ही किसी भवन को घर अथवा मंदिर या पूजा-स्थल बनाती है। कुछ लोग घर पर असहाय बूढ़े-बीमार माता-पिता को अकेला छोड़ कर पूजा-पाठ, सत्संग-साधना और तीर्थ-यात्रा में लग जाते हैं। ऐसी पूजा, सत्संग और तीर्थ यात्रा मात्र आडंबर है, अधार्मिकता है।

उस घर से बड़ा कोई मंदिर नहीं, जहां संबंधों की गरिमा को महत्व दिया जाता हो। वास्तविक धर्म का पालन चार धाम की यात्रा में नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य के पालन तथा घर को मंदिर सदृश बनाने में ही है। और घर को यदि सचमुच मंदिर बनाना हो तो पहले मन को मंदिर बनाना होगा।

मन को मंदिर बनाने का अर्थ है उसे मंदिर की तरह पवित्र बनाना, उसे विकारों से रहित करना। मन मंदिर बनने के बाद किसी स्थूल मंदिर की आवश्यकता ही नहीं रहती, क्योंकि जिसका मन मंदिर हो गया, उसके लिए यह सारा ब्रह्मांड एक मंदिर हो जाता है। और इस में उपस्थित प्राणियों की सेवा व उनसे प्रेम करना उसका धर्म।

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