काँधे पर व्यवस्था की लाश को ढोने को विवश आम आदमी !!

अमेरिका के मशहूर गायक और इस वर्ष के नोवेल पुरूस्कार विजेता बॉब डिलन के एक चर्चित गीत की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं। उन पंक्तियों का आशय है: आखिर कितनी मौतों के बाद हम कहेंगे कि मासूमों का बहुत खून बह गया है। 
रोते परिजनों के साथ मृतक की लाश को अपने कंधे पर ढोकर ले जाता हुआ व्यक्ति दरअसल अपने काँधे पर व्यवस्था की लाश को ढोता है। इंसान होने के नाते दूसरे इंसान की संवेदनाओं के प्रति हमारी संवेदना इंसानियत है। लेकिन तेजी से बदलते भारत में भावनाएं पीछे छूटती जा रही हैं, समाज अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटता दिख रहा है और दूसरों की तकलीफ कुछ समय के लिए उत्सुकता भर ही पैदा करती है। जब तक दूसरों की तकलीफ परेशान नहीं करेगी तब तक उसका सामूहिक समाधान खोजने की जरूरत भी पैदा नहीं होगी। भारत में नागरिक सुविधाएं बढ़ाने और उन्हें हर नागरिक के लिए उपलब्ध कराने के बदले लोगों पर छोड़ दिया गया है कि वे अपनी जरूरतें कैसे पूरी करें। अगर पैसा है तो जरूरतें पूरी होंगी, अगर नहीं तो इस बात की भी चिंता नहीं है कि उससे समाज को कितना नुकसान होगा। भारत के जिलों को देखें तो साफ होता जा रहा है कि राष्ट्रीय स्तर पर चुने जाने वाले प्रशासनिक अधिकारी जिलों को विकास की राह पर नेतृत्व देने की हालत में नहीं हैं। स्थानीय प्रशासनिक ईकाइयों का काम नागरिकों के लिए मूलभूत सुविधाओं का इंतजाम करने के अलावा उनकी शिक्षा और रोजगार की संभावनाएं बनाना भी है। भारतीय प्रशासनिक अधिकारी सिर्फ शासन कर रहे हैं, नेतृत्व नहीं दे रहे हैं। इस कमजोरी को राज्यों के स्तर पर क्वॉलिटी वाले प्रशासनिक कॉलेज खोलकर दूर किया जा सकता है, जहां के छात्र तीन साल में न सिर्फ यह सीखकर निकलेंगे कि पंचायतों, नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों का संचालन कैसे किया जाए, बल्कि जहां स्थानीय स्तर पर यह रिसर्च और विश्लेषण भी हो पाएगा कि विकास की संरचनाएं किस तरह सुधारी जा सकती हैं और सभी नागरिकों को किस तरह बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं। आंख मूंदने से समस्याएं खत्म नहीं होंगी। समस्याओं के समाधान के लिए ढांचा बनाने की तो जरूरत है ही। यह हमारी सरकार की बेरुखी का ही नतीजा है कि ऐसे इंतजामों के लिए जो अधिकारी और आयोजक जिम्मेदार होते हैं, उनकी लापरवाही से होने वाली मौतें जल्द भुला दी जाती हैं। इनके लिए कोई दंडित नहीं होता है।
ऐसे हादसों में दिखने वाला आपराधिक दोहराव विचलित करने वाला होता है। हमारा समाज आतंकी घटनाओ पर काफी प्रतिक्रिया देता है। ऐसे मामलों में प्रशासनिक अमले से लेकर न्यायपालिका और सत्ताधारी पार्टी से लेकर विपक्ष तक अत्यधिक सक्रियता दिखता है, लेकिन भगदड़ और इस प्रकार की मामलों को सामान्य दुर्घटना मान कर जल्द ही भुला दिया जाता है। शायद हम सब खास तरह की मौतों के लिए इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि इस तरह की घटनाओं से उहें कोई विशेष हलचल नहीं होती है।

अगर वास्तविक सामाजिक जनतंत्र कायम नहीं किया जाता है तो इस औपचारिक जनतंत्र को मटियामेट होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। लेकिन लगता है कि विभिन्न गैर-बराबरियों को अपने अंदर समाहित किये हमारे समाज में एक व्यक्ति का मूल्य होने की लड़ाई या कहें कि देश में सामाजिक जनतंत्र कायम करने कि लंबी लड़ाई चलेगी।

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