सपनों और सच्चाइयों के बीच भारत !!

कोई सितारा नहीं पत्थरों की पलकों पर
कोई चराग जलाओ बड़ा अंधेरा है।
                                    .......बशीर बद्र 
"आज हम दुर्भाग्य के एक युग को समाप्त कर रहे हैं और भारत पुनः स्वयं को खोज पा रहा है। आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, वो केवल एक क़दम है, नए अवसरों के खुलने का। इससे भी बड़ी विजय और उपलब्धियां हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं।“ 
          हमारे युवा वर्ग को विरासत में जो भारत मिलने वाला है उसकी छवि निराशाजनक है। सन् 1947 में भारत और भारतवासी विदेशी दासता से मुक्त हो गये। भारत के संविधान के अनुसार हम भारतवासी प्रभुता सम्पन्न गणराज्य के स्वतन्त्र नागरिक है। परन्तु विचारणीय यह है कि जिन कारणो ने हमें लगभग 1 हजार वर्षो तक गुलाम बनाये रखा था। क्या वे कारण खत्म हो गये है? जिन संकल्पो को लेकर हमने 90 वर्षो तक अनवरत् संघर्ष किया था क्या उन संकल्पो को हमने पूरा किया है? हमारे अन्दर देश भक्ति का अभाव है। देश की जमीन और मिट्टी से प्रेम होना देशभक्ति का प्रथम लक्षण माना जाता है। भारत हमारी माता है उसका अंग- प्रत्यंग पर्वतो, वनो नदियो आदि द्वारा सुसज्जित है उसकी मिट्टी के नाम पर हमें प्रत्येक बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। आज हम अपने संविधान मे भारत को इंडिया कहकर गर्व का अनुभव करते हैं, और विदेशियों से प्रमाण पत्र लेकर गौरवान्वित होने का दम भरते है। हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन को जिस भाषा द्वारा देश मुक्त किया गया, उस भाषा हिन्दी को प्रयोग में लाते हुए शर्म का अनुभव होता है। भारत गूँगा है जिसकी कोई अपनी भाषा नहीं है उसको तो परतन्त्र ही बना ही रहना चाहिए, विश्व में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ के राजकाज में तथा तथाकथित कुलीन वर्ग में एक विदेशी भाषा का प्रयोग किया जाता है। विचारणीय है कि वाणी के क्षेत्र में आत्महत्या करने के उपरान्त हमारी अस्मिता कितने समय तक सुरक्षित रह सकेंगी। राजनीति के नाम पर नित्य नए विभाजनो की माँग करते रहते है। कभी हमे धर्म के नाम पर सुरक्षित स्थान चाहिए तो कभी अल्पसंख्यको के वोट लेने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान की माँग करते हैं। एक वह युग था जब सन् 1905 में बंगाल के विभाजन होने पर पूरा देश उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ था। परन्तु आज इस प्रकार की घटनाएं हमारे मर्म का स्पर्श नहीं करती हैं। सन् 1947 में देश के विभाजन से सम्भवतः विभाजन-प्रक्रिया द्वारा हम राजनीतिक सौदेबाजी करना सीख गए हैं। आपातकाल के उपरान्त एक विदेशी राजनयिक ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाना बहुत आसान है, क्योंकि यहाँ देशभक्तो की प्रतिशत बहुत कम है। हमारे युवा वर्ग को चाहिए कि वे संघठित होकर देश-निर्माण एंव भारतीय समाजिक विकास की योजनाओं पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करें उन्हे समझ लेना चाहिए। हमें आगें आना होगा और ये सोच को छोडना होगा कि इतना बडा भारत- “हमसे क्या होगा”। याद रखें एक व्यक्ति भारत को बदल सकता है आवश्यक्ता तो साकारत्मक सोच की है। नारेबाजी और भाषणबाजी द्वारा न चरित्र निर्माण होता है और न राष्ट्रीयता की रक्षा होती है। नित्य नई माँगो के लिए किये जाने वाले आन्दोलन न तो महापुरुषो का निर्माण करते है और न स्वाभिमान को बद्धमूल करते हैं। आँखे खोलकर अपने देश की स्थिति परिस्थिति का अध्ययन करें और दिमाग खोलकर भविष्य-निर्माण पर विचार करें। 
          क्या आजादी का संघर्ष इसीलिए किया गया था? युवाओं ने इसीलिए बलिदान दिया था कि अंग्रेजों के स्थान पर कुछ 'स्वदेशी' लोग सत्ता का उपयोग करें। सत्ता का हस्तानांतरण हुआ है, लेकिन उसके आचरण में बदलाव नहीं आया है। जब भी 15 अगस्त नजदीक आता है मुझे ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं- “आज हथकड़ी टूट गई है, नीच गुलामी छूट गई है, उठो देश कल्याण करो अब, नवयुग का निर्माण करो सब।“
          देश में बढ़ते एकाधिकारवादी आचरण ने सत्ता को इतना भ्रष्ट और निरंकुश कर दिया है कि उसकी चपेट में आकर सारा अवाम कराह रहा है। महात्मा गांधी का मानना था कि गांवों का विकास ही उत्थान का प्रतीक होगा। गांवों में जीवन मूल्य के बारे में अभी भी संवेदनशीलता है। हमने पंचायती राज व्यवस्था को तो अपनाया है, लेकिन गांवों को उजड़ते जाने से नहीं रोक पा रहे हैं। कृषि प्रधान देश में खेती करना सबसे हीन समझा जाने लगा है। शिक्षा के लिए अनेक आधुनिक ज्ञान वाले संस्थान जरूर स्थापित हो गए हैं, लेकिन वहां से 'शिक्षित' होकर निकलने वालों की पहचान किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊंचा वेतन पाने के आधार पर हो रही है। स्वदेशी, स्वाभिमान और स्वावलंबन की भावना तिरोहित होती जा रही है। कर्ज जिसे आजकल 'एड' का नाम दे दिया गया है, एकमेव साधन बनकर रह गया है, जिसने हमें फिर गुलामी की तरफ धकेल दिया है। राजनीतिक आजादी तो मिली, लेकिन आत्मनिर्भरता के लिए प्रयास न होने के कारण हम आर्थिक रूप से गुलाम होते जा रहे हैं, जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में हुआ था। तब भी शासक तो स्वदेशी ही थे, लेकिन उनको चलना ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुसार पड़ता था। आज हम भी अपने आर्थिक क्षेत्र को विश्व बैंक या विश्व मुद्रा कोष के पास गिरवी रख चुके हैं। जिन वस्तुओं की हमें जरूरत भी नहीं है उनको आयात करने की विवशता से हम बंधते जा रहे हैं।
          अगर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ा जाये, तो पता चल जायेगा कि 1947 में जिन आदर्शो और मूल्यों के साथ स्वतंत्रता दिवस मनाया था, उन मूल्यों के साथ आज के लोग स्वतंत्रता दिवस नहीं मना रहे हैं। गुजरते वक्त के साथ आजादी की बात भी पुरानी हो चली है। आज न तो पुराने तेवर बचे हैं, न पुराने भाव। हम केवल तिरंगा फहरा और देश भक्ति के कुछ गीत बजाकर अपनी जिम्मेवारी पूरी समझ लेते हैं। अत: साथियों, लोकतंत्र की रक्षा के लिए हम सभी को व्यापक दृष्टिकोण अपनाना होगा, तभी हमारा लोकतंत्र स्थायी व मजबूत रह सकेगा।

सभी देश वासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें।

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