यक्ष प्रश्न: स्त्री होना क्या अभिशाप है?
"हवस इन्सान को शैतान बना देता है,
अच्छे और बुरे का वो भेद मिटा देता है,
आदमी को आदमी का शिकार बना देता है,
टूटते रिश्तों का कहाँ गम होता है,
औरों की लाशों पर महल बना देता है।"
हमारी संस्कृति में और हमारे धर्मग्रंथों
में स्त्री को जो सम्मान मिला है। वो आज बस इतिहास के पन्नों में ही सीमट कर रह गया
है।क्या स्त्री की संरचना बस पुरुष की काम और वासना पूर्ति के लिए हुई है। वो जननि
है, वही हर संरचना की मूलभूत और आधारभूत सत्ता
है। पर क्या अब वही ममतामयी पवित्र स्त्री का आँचल बस वासनामय क्रीड़ा का काम स्थल
बन गया है। आज समाज में स्त्री को बस वस्तु मात्र समझ कर निर्जीव वस्तुओं की तरह उनका
इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या यही है वजूद आज के समाज में स्त्री का।
स्त्री की कुछ मजबूरियाँ है जिसने उसे
बस वासना कि पूर्ति के लिए एक वस्तु मात्र बना दिया है। मजबूरीवश अपने ह्रदय पर पत्थर
रख बेचती है अपने जिस्म को और निलाम करती है अपनी अस्मत को। पर वो पहलू अंधकारमय है।वह
वासना का निमंत्रण नहीं है अवसान है। वह वासनामयी अग्न की वो लग्न है,जो बस वजूद तलाशती है अपनी पर वजूद पाकर
भी खुद की नजरों में बहुत निचे तक गिर जाती है।स्त्री बस वासना नहीं है,वह तो सृष्टि है।सृष्टि के मूल कारण प्रेम
की जन्मदात्री है। स्त्री से पुरुष का मिलन बस इक संयोग है, जो सृष्टि की संरचना हेतु आवश्यक है।पर
वह वासनामयी सम्भोग नहीं है।
अपनी अश्लील भावनाओं को प्रेम की पवित्रता
का नाम देकर कोई अपनी अतृप्त वासना को छुपा नहीं सकता। वासना के गंदे कीड़े जब पुरुष
मन की धरातल पर रेंगने लगते है तब वह बहसी, दरिंदा हो जाता है। अपनी सारी संवेदनाओं
को दावँ पर रख बस जिस्म की प्यासी भूख को पूरा करने के लिए किसी हद तक गुजर जाता है। जब
तक अपनी इच्छानुसार सब कुछ ठीक होता है तब तक वह प्रेम का पुजारी बना होता है। पर जैसे
ही उसे विरोध का साया मिलता है वह दरिंदगी पर उतर जाता है। वासना के कुकृत्यों में
लिप्त होकर जिस्मानी भूखों के लिए किसी नरभक्षी की तरह स्त्री के मान, मर्यादा और इज्जत को रौंदता रौंदता वह
समाज, परिवार और संस्कारों को ताक पर रख बस वही
करता है, जो करवाती है उसकी वासना।
नारी ने बहुत कुछ सहा है और वह सह भी
सकती है क्योंकि उसे भगवान ने बनाया ही सहनशीलता की मूर्ति है किन्तु ऐसा नहीं है
कि केवल नारी ही सहनशील होती है।
मैं जानता हूँ कि बहुत से पुरुष भी सहनशील होते हैं और वे भी बहुत से नारी
अत्याचार सहते हैं इसलिए मैं न नारीवादी हूँ और न पुरुषवादी क्योंकि मैंने देखा है
कि जहाँ जिसका दांव लग जाता है वह दूसरे को दबा डालता है।
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