प्रधानमन्त्री द्वारा आतंकवाद के खिलाफ लाल किले से आवाज

लाल किला के प्राचीर से बहुत लंबे अरसे के बाद किसी प्रधानमन्त्री ने आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज उठाई है वह निश्चित ही स्वागत योग्य है।

आज जिस त्रदासी और परस्पर विरोधाभासी दौर से देश-दुनिया गुजर रही है, वह रचनाकारों के लिए स्वर्णकाल है! ऐसे ही एक दौर से भारत को मध्यकाल में भी गुजरना पड़ा था।

आतंकी हमलों का सामना आज विश्व के अनेक मुल्कों को करना पड़ रहा है। अमेरिका जैसे सर्वशक्तिसम्पन्न विकसित मुल्क भी उसके डाह में झुलस चूका है। आतंकवाद आज विश्ववयपी सिरदर्द है, जिससे उबरने के उपाय खोजे जा रहे हैं।
उग्रवाद, आतंकवाद जैसे नृशंस संजालों की सिंचाई कहाँ से हो रही है, इस पर मंथन चल रहा है।मंथन से एक बात यह भी उभर सामने आई है कि भ्रष्टाचार ही वैसे नृशंस संजालों की जड़ों में दूध-पानी डालता है।यह सही है कि आज भ्रष्टाचार ने लगभग पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। अनेक मुल्कों में भ्रष्टाचार ने शिष्टाचार का रूप अख्तियार कर लिया है।भारत इसका अपवाद नहीं है।मन जाता है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन हो या उस जैसे दर्जनों आंदोलन, उसकी आधारभूमि भ्रष्टाचार ने ही बनाई।भूमि वितरण, बंदोबस्ती, हदबंदी अथवा जमीन से जुड़े अनेक मामलों में भ्रष्टाचार के कारण गरीबों के साथ घुलते गए, जहाँ से उन्हें तत्क्षण राहत भी दिलाई गयी।कार्यालयीन भ्रष्टाचार ने लाखों लोगो को व्यवस्था के विरुद्ध असंतुष्ट किया।व्यक्तिगत सम्पति अधिकार के तहत धनवानों को भ्रष्टाचार ने संरक्षित करते हुए उसे फूलने-फलने में काफी मदद की। परिणामतः लोकतंत्र में अमीर होते चले गए और गरीब गरीबी के खंदक में गिरते चले गए।आर्थिक विषमता की इस गहरी खाई को बढ़ाने और उसकी यथास्थिति को तर्कसम्मत बनाने में धार्मिक भ्रष्टाचार ने सक्रिय भूमिका निभाई।

सम्प्रदायवाद धार्मिक भ्रष्टाचार की कोख से ही उत्पन्न भष्मासुर है।सत्ता के अपहरण में संप्रदायवाद के घिनौने प्रयासों को लोगों ने पिछले दशकों में बहुत करीब से देखा-समझ है।इसी साम्प्रदायिक उन्माद से आतंकवाद की तरफ भी एक रास्ता जाता है, जिसकी ओर असंख्य बेरोजगार नौजवान या नाना प्रकार के भ्रष्टाचार से संत्रस्त युवक जाने-अनजाने चले जाते हैं।संप्रदायवाद आतंकवाद से भी खतरनाक जहर है, क्योंकि वह अदृश्य रूप में मनुष्य की चेतना को विषाक्त कर उसका अपने हित में इस्तेमाल करता है।साम्प्रदायिक उन्माद में लोकतंत्र की व्यवस्था धरी रह जाती है और संगठित संप्रदायवाद अपना नृशंस खेल खेलने लग जाता है।गरीब-अशिक्षित जनता संप्रदायवाद की एक बड़ी ताकत है, जिसके इस्तेमाल से वह लोकतंत्र में सत्ता और पूरी व्यवस्था को कुछ मुट्ठियों में कैद रखना चाहता है।

एक रपट के अनुसार आतंकवाद और संप्रदायवाद के पनपने में अमेरिका जैसे विकसित देश का सहयोग रहा है।आकस्मिक नहीं है कि आतंकवादियों का गढ़ पाकिस्तान को बिना किसी शर्त के अरबों डॉलर की राशि देने के चलते अमेरिकी प्रशासन आलोचनाओं के दायरे में आता रहा है।

भारत क्योंकि विकसित देशों के पूंजी साम्राज्य विस्तार का बहुत बड़ा बाजार है, इसलिए यह आतंकवाद का स्वभाविक शिकार है।यह सही है कि आतंकवादियों की सोच उन्माद आधारित बिल्कुल अलग होती है जो पूरी दुनिया को मध्य युग में वापस ले जाना चाहती है, पर यह भी कटु यथार्थ है कि उसे पनपने का अवसर भी विकसित देशों ने ही अपनी साम्राज्य-लिप्सा से वशीभूत होकर दिए।

आज देश-दुनिया जिन भीषण संकटपूर्ण हालातों से गुजर रही है , कदाचित भारत के लिए यह स्थिति मध्यकाल जैसी है, जब देशी-विदेशी आक्रांताओं से जनता चतुर्दिक दामन का शिकार हो रही थी और उसके आर्तनाद को सुनने वाला कोई नहीं था।ऐसे में उसने अपने को ईश्वर के हवाले कर रखा था जनता के उस दर्द -कराह को तात्कालीन भक्ति साहित्य में देखा जा सकता है।आज भी जानता चतुर्दिक दमन और शोषण का शिकार हो रही है।कहने को हम लोकतंत्र व्यवस्था में हैं, पर सभी जानते हैं कि साम्राज्यशाहियों ने 'तंत्र' के द्धारा 'लोक' को अपने कब्जे में कर रखा है, इसलिए आज राजनेताओं की जनता विश्वसनीयता नहीं रह गयी गई है।ऐसे में रचनाकारों के लिए यह अनेको चुनौतियों से भरा-निर्मम काल है, जिसे वे अपनी रचनाओं से पूरी संवेदनशीलता से चित्रित कर आम जनता की चेतना को जाग्रत कर सकते हैं।आखिर संकटकाल का संघर्ष-साहित्य ही भविष्य में प्रेरणा का साहित्य बनता है।सत्ता के आकर्षण और अनेक प्रकार के मोह -प्रलोभन से मुक्त रहकर ही साहित्यकार अपने समय के नग्न यथार्थ के चित्रण द्वारा जान चेतना को झझकोर सकता है और यही संकटकाल में उसका मुखर दायित्व भी है।

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