भगवान राम के जन्मोत्सव के बहाने कुछ अनसुलझे विचार:
यह ठीक है कि माता-पिता ही संतान को जन्म देते हैं, पर संतान क्या उनकी ऐसी व्यक्तिगत संपत्ति है, जिसे वे लोग जब चाहे नष्ट कर दे ? यह जीवन किसकी संपति है ? कौन इसे उत्पन्न करता है? और किसे इसको नष्ट करने का अधिकार है ? क्या सन्तति का जन्म प्रकृति का विषय नहीं है? क्या स्त्री-पुरुष उस विधान के उपकरण मात्र नहीं हैं ? प्रकृति स्त्री-पुरुष के माध्यम से अपनी सृष्टि को आगे चलाती है; तो जीवन किसी स्त्री अथवा पुरुष की संपति कैसे है ?
संतान के समर्थ होने पर पिता उसे अपने सुख का उपकरण मानने लगता है। पिता क्यूँ चाहता है कि उसके असमर्थ बुढापे को सुखी बनाने के लिए, युवा संतान अपनी सारी जिजीविषा का दमन कर ले। पिता क्यूँ अपने पुत्र की उर्जा, प्राणक्ता और उल्लास का स्वतंत्र रूप से विकसित होने नहीं देना चाहता? क्यूँ वह चाहता है कि वह अपना सामर्थ्य, अपना उल्लास, अवसानोंन्मुखी पिता की झोली में डाल दे ....?
पिता भी तो मनुष्य है। उसमें भी मानवीय दुर्बलताएं हैं। उसकी बुद्धि भी उसे धोखा दे सकती है। फिर उसकी ही इक्षायें, कामनायें, निर्णय क्यूँ सत्य है? पिता और पुत्र की इक्षायें दो स्वतंत्र व्यक्तियों की इक्षाए होने के कारण सामान रूप से महत्वपूर्ण है। फिर पिता की एक अनुचित इक्षा की पूर्ति उनका धर्म क्यूँ है ?......
रामनवमी की हार्दिक शुभकामना
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