बुद्ध और महावीर की धरा असहिष्णु कब हुई ?

किसी भी शिक्षा के दो मुख्य पहलु होते हैं। एक बौद्धिक और दूसरा व्यवहारिक। बुद्ध का जोर शिक्षा के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक था। वे कहते थे व्यवहारिक पक्ष मज़बूत होगा तभी लोगों को आकर्षित करेगा। मेरी शिक्षा से लोगों का जीवन बदलता है वे सुखी और शांत होते है तो लोग सहज इसकी तरफ आकर्षित होंगे। परन्तु कालांतर में व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने लगा और बौद्धिक पक्ष पर ही लोग ज्यादा ध्यान देने लगे। इससे हुआ ये की लोग चर्चा तो बहुत करते थे पर उसका पालन नही करने से उनमें कोई बदलाव नही आता था उलटे अधिक कट्टर और असहिष्णु होने लगे। विवाद बढ़ते गए। व्यवहारिक पक्ष कमजोर होने से बुद्ध की शिक्षा के वो परिणाम नही मिलने लगे जिनकी आशा की जाती थी। अतः उनकी शिक्षा बहुत भली होने के बावजूद कमजोर पड़ने लगी। और कमजोर पड़ती शिक्षा लुप्तता की ओर तेजी से अग्रसर हुई।

भारत में तो संस्कृति के उदय के समय से ही सहिष्णुता व मेल-मिलाप का साम्राज्य रहा है। यह भाव तो भारत के प्राण हैं। भारत में तो विचार की अभिव्यक्ति व विसम्मति पर सदा से ही कभी अंकुश नहीं रहा है। यह तो भारतीय जीवन पद्धति की आत्मा है। यही तो अमृत है जो अविरल विचारों के आदान-प्रदान व शास्त्रार्थ के मंथन से प्राप्त हुआ है। अतीत काल में जब भी दो ऋषि-मुनि मिल बैठते थे तो उनमें आध्यात्म पर शास्त्रार्थ का सिलसिला शुरू हो जाता था। जीतता वही था जिसके तर्क में दम होता था। शास्त्रार्थ के निरन्तर मल्ल युद्ध ने ही तो भारतीय ज्ञान व विचार को शुद्धि व शक्ति प्रदान की है। इसी ने तो उसे विश्व गुरू बनाया था।

विचार में भेद के कारण किसी को सूली पर चढ़ाना व काट देना भारत की संस्कृति के लिए एक अजनवी चीज है। हिन्दू समाज में घुस आई कुरीतियों व गलत संस्कारों के विरोध में भगवान बुद्ध खड़े हुए थे पर समाज ने उनके विरूद्ध कोई जिहाद खड़ा नहीं किया। इसके विपरीत हिन्दू समाज ने उन्हें अपना लिया और उन्हें भगवान विष्णु का अवतार मान कर भगवान बुद्ध कबूल कर लिया। यही किया भगवान महावीर के साथ।

चरवाक ऋषि प्रतिदिन वेदों को गाली देते थे। हिन्दू समाज ने उन पर पत्थर फेंक कर लहूलुहान नहीं किया। उल्टे उनकी विचारधारा को भी सुना और उन्हें भी महर्षि मान लिया

यह हिन्दू समाज की उदारवादिता व सहिष्णुता का ही कमाल था कि उन्होंने गैर-हिन्दू धर्मों को दिल खोल कर गले लगाया। यदि हिन्दू असहिष्णु होते तो यह संप्रदाय कभी भारत की पवित्र धरती पर पांव ही न रख पाते। यह हिन्दू समाज व हिन्दू राजे-महाराजे ही थे जिन्होंने गैर-भारतीय धर्मों को उनके पूजा स्थल बनाने के लिए धन और भूमि दान की।
यह भी उदारता व सहिष्णुता की ही हिन्दू मानसिकता थी कि उसने धर्म के आधार पर हुये भारत के विभाजन को स्वीकार किया और भारत में रह गये गैर-हिंदुओं के साथ वह व्यवहार नहीं किया जो पाकिस्तान व बांग्लादेश में रह गए गैर-मुस्लिम लोगों के साथ हुआ।

सहिष्णुता या असहिष्णुता को मापने का कोई पैमाना नहीं है। इस कारण यह कह पाना कठिन है कि जब कोई तर्कवादी व बुद्धिजीवी किसी दूसरे व्यक्ति या समूह की आस्था व विश्वास पर चोट करता है या उसका मजाक उड़ाता है तो वह उसकी सहिष्णुता का सबूत है या असहिष्णुता का। क्या यह असहिष्णुता है कि यदि कोई व्यक्ति या समूह उनके इस आचरण या कथन से आहत हो जाये या उसका प्रतिकार करे जो उसका मौलिक अधिकार है? यह तो सब जानते ही हैं कि किसी की आस्था को किसी तर्क की कसौटी पर नहीं आंका जा सकता। किसी तार्किक को किसी की आस्था पर प्रश्न उठाने का अधिकार है तो क्या वह अपने इस आचरण से असहिष्णुता पैदा नहीं कर रहा?

क्या जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ तो वह असहिष्णुता का प्रमाण नहीं था? स्वाधीनता के बाद पिछले 69 वर्षों में अनेक सांप्रदायिक दंगे हुए, क्या वह असहिष्णुता के प्रमाण नहीं थे? 1984 में इंदिरा गांधी की नृशंश हत्या होने पर जो सिख-विरोधी दंगे भड़के वह असहिष्णुता का नमूना नहीं थे? तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तो यहां तक कह दिया था कि जब कोई बड़ा वृक्ष गिरता है तो नीचे की जमीन जरूर हिलती है। क्या उनके इस कथन ने असहिष्णुता की भावना को हवा नहीं दी? बाद में तो उन्हें ही भारत रत्न के सर्वोच्च सम्मान से सुशोभित कर किया गया था।

असहिष्णुता के माहौल या भावना पर हो-हल्ला करने का मतलब यह नहीं कि किसी व्यक्ति, समूह या संप्रदाय के मन में अन्याय, उत्पीडऩ, भेदभाव, उत्तेजना या अपमान को सहने की भीरू प्रवृति पैदा कर दी जाये। भारत का मुस्लिम तथा अंग्रेज विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति सहिष्णुता का भाव ही तो प्रमाण है कि भारत को 1000 वर्ष तक गुलाम रहना पड़ा, अपमान सहना पड़ा। वास्तविकता तो यह है कि उल्टे इन आक्रमणकारियों ने भारतवासियों के प्रति असहिष्णुता का भाव रखा और उन्होंने हिन्दू संस्कृति, उनकी आस्थाओं, परंपराओं, संस्कृति व इतिहास की खिल्ली उड़ाई और उसे नीचा दिखाने व मिटाने के लिये सब कुछ किया, जो एक आक्रमणकारी कर सकता है। उन्होंने अपने धर्म, रहन-सहन व संस्कृति को महान और भारतीय को हीन दिखाने की कोशिश की। वह उन सभी चीजों के प्रति असहिष्णु थे, जिससे उनको भारतीयता की बू आती थी। फिर भी भारत उनके अत्याचारों व अपमानों के प्रति सहिष्णु रहा। इतिहास की दृष्टि से देखा जाये तो असहिष्णुता का भाव ही हिन्दू संस्कृति व सभ्यता से मेल नहीं खाता और यह पूर्णतया विदेशी तत्व है, जिसे आक्रमणकारी अपने साथ लाये थे। यदि कभी भारतीयों ने विदेशियों के प्रति असहिष्णुता का भाव प्रदर्शित किया तो वह पूरी तरह स्वभाविक है, क्योंकि धैर्य की भी कोई सीमा होती है।


भारतीय समाज सदैव उदार, समझदार व मिलनसार रहा है। असहिष्णुता का भाव ही भारतीय मूल का नहीं है और यह विशुद्ध आयातित भावना है। लड़ाई की जड़ तो यह है कि सेक्युलर दूसरों को वह उपदेश देते हैं जिस पर वह स्वयं कभी नहीं चलते हैं।

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