अपने-अपने राम!!
युद्ध
समाप्त हो चूका है। लंका पर राम का आधिपत्य हो चूका था। विभीषण राजा घोषित किये जा
चुके हैं। युद्ध-विजय का समाचार देने के लिए हनुमान को अशोक वाटिका भेजा जाता है।
विभीषण माता सीता को राम तक लेकर लाते हैं। क्रोधित राम पर-घर में रह चुकी सीता के
प्रति न केवल उदासीनता प्रकट करते हैं बल्कि उसे स्वीकार करने से मना कर देते हैं
और साथ ही सीता को कहीं भी जाने की स्वतंत्रता दे देते हैं। उनका मुख्य तर्क है कि
हरण के समय जब सीता को रावण ने उठाया था तो अवश्य ही उसकी देह ने सीता की देह का
स्पर्श किया होगा। राम के उस देहवाद ने वैदेही को जरूर चकित किया होगा। चकित होने
की बात ही है। विवाह से पूर्व राम ने अहल्या जैसी ऋषि-पत्नी का उद्धार किया था
जिसने वाल्मीकि-रामायण के अनुसार पति-वेश में आए इंद्र को पहचानकर भी न केवल उसके
साथ समागम किया बल्कि उससे संतुष्ट होकर पति के आगमन से पूर्व ही उसे चले जाने का
संकेत भी दिया। ऐसी पत्नी को गौतम ऋषि द्वारा स्वीकार करने पर राम मौन ही रहे
बल्कि खुश ही हुए होंगे। दूसरों के संदर्भ में राम के हृदय की उदारता का प्रमाण
बाली-सुग्रीव प्रसंग में भी मिलता है। बाली ने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा
को बलपूर्वक अपने घर में रख लिया था तथा उससे कामेच्छा की पूर्ति भी करता था। राम
ने सुग्रीव की सहायता कर रूमा को बाली के चंगुल से छुड़ाया था तथा सुग्रीव ने परवश
पर-पुरुष के घर रह चुकी रूमा को सहर्ष स्वीकार कर लिया था जिस पर राम की कोई
विपरीत टिप्पणी नहीं हुई। कदाचित इसीलिए सीता राम की बात पर न केवल दंग रह जाती है
बल्कि प्रश्नाकुल भी प्रतीत होने लगती है। तब भी अपने युग की मानसिकता के बोझ तले
वह यही कह पाती है कि यदि उसे स्वीकार न करना तय था तो (यहाँ लाकर अपमानित करने की
अपेक्षा) हनुमान से अशोक वाटिका में ही उसकी सूचना भिजवा देते ताकि सीता वहीं अपने
को समाप्त कर लेती।
किंतु
इस सारे प्रसंग का जो अत्यंत महत्वपूर्ण और आघातपूर्ण (शॉकिंग) पक्ष है, वह दूसरा है जो सूक्ष्म होते हुए भी अपने भीतर सोच की अनंत संभावनाएँ लिए
हुए है। सीता के मन में एक सहज प्रश्न उठता है जिसे वह राम के समक्ष रखती है। सीता
जानना चाहती है कि युद्ध के बाद यदि सीता को स्वीकार ही नहीं करना था तो उसके लिए
वह कष्टदायी युद्ध ही क्यों किया गया? बातचीत (या
तर्क-वितर्क) में राम का एक ऐसा कथन भी था जिसने उस समय की सीता को भी अवश्य हिला
दिया होगा, आज का व्यक्ति तो हिलेगा ही हिलेगा।
कथन
इस प्रकार था -
विदितश्चास्तु
भद्रं ते तोअयं रणपरिश्रमः।
सुतीर्णः
सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृतः।।
अर्थात 'तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो युद्ध का परिश्रम उठाया है तथा इन
मित्रों के पराक्रम से जो इसमें विजय पाई है, यह सब
तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है।
(वाल्मीकि रामायण- युद्ध कांड/115/15)
रक्षता
तु मया वृत्तमपवादं च सर्वतः।
प्रख्यातस्यात्मवंशस्य
नयड़्ंग च परिमार्जना।।
सदाचार
की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा
अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए ही यह सब मैंने किया
है।'
(वाल्मीकि रामायण- युद्ध कांड/115/16)
मुझे
यह भी लग रहा है कि सीता पर पहला आघात तो तब ही हुआ होगा जब युद्ध-विजय के बाद
उसने अपने पति राम के स्थान पर पहले हनुमान और बाद में विभीषण को पाया होगा। सीता
की मानसिकता से सोचें तो उसने सहज रूप में यही कल्पना की होगी कि राम, जो उसके पति हैं, कैदी-प्रताड़ित निर्दोष सीता
के रिहा होते ही, सबसे पहले दौड़कर उसके पास आएँगे और
उसे गले से लगा लेंगे - वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपने पुत्र, पुत्री, बहन, माँ, पिता या अन्य आत्मीय संबंध के प्रति व्यवहार करता है।
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