धरना-प्रदर्शन का इतिहास !!


“नहि ते शूर राधसो अन्तं विन्दामि सत्रा।
दशस्या नो मधवन नू चिद् द्रिवो धियो वाजेभिराविथ।।“
                        (ऋगवेद- 8/64/11)
अर्थात, वैदिक संस्कृति व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता की उद्घोषक है। कहीं पर भी वेद ने या वैदिक ग्रंथों ने यह घोषणा नही की कि ईश्वर प्रदत्त धन के स्रोतों पर राजा का या राजा के परिजनों का या किसी विशेष मत के मानने वालों का एकाधिकार है। शोषण से मुक्त समाज की स्थापना करना वेद का आदर्श है। जबकि मुस्लिम सुल्तानों ने दूसरों का धन हरण करके खाने को अपना परम कर्तव्य माना।

Protest शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच भाषा के 'Protet' से हुआ है, जिसे पहली बार सन 1751 में Statement Of Disapproval के तौर पर रिकॉर्ड किया गया था अर्थात किसी घटना, नीति या परिस्थिति को लेकर आवाज़ उठाने को 'विरोध' करना कहते हैं। अर्थात, जब नाइंसाफी करना क़ानून बन जाए तो विरोध करना हमारा कर्तव्य बन जाता है।
          भारत में शोषण के खिलाफ व्यवस्था के प्रति अपने आक्रोश को, विरोध को प्रदर्शन करने का बहुत ही प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलता है कि यह कब से प्रारंभ हुआ है, परन्तु इसके उदहारण जहाँ-तहां इतिहास के पन्नों में अंकित अवश्य मिलते हैं।
          ठीक उसी तरह अपहरण का भी बहुत प्रमाणिक तथ्य हमें उपलब्ध नहीं है कि यह (कु)-प्रथा समाज में कब से प्रचालन में आयी थी। रावण के द्वारा माँ सीता का अपहरण एवं अर्जुन के द्वारा सुभद्रा का अपहरण तथा बहुत बाद के इतिहास में पृथ्वीराज चौहान के द्वारा संजोगिता का अपहरण का हमें प्रमाण मिलता है। जहाँ तक मेरी स्मृति में है कि ब्रिटिश शासन के अंतर्गत बिहार के एक जिला बेतिया(तत्कालीन चंपारण) में एक दुर्दांत अपराधी हुआ करता था जिसके अपराधिक क्रिया कलापों से अंग्रेज सरकार परेशान थी। उस समय के तत्कालीन अंग्रेज पुलिस अधीक्षक ने उस अपराधी तक अपना त्राहिमाम सन्देश भिजवाया और उसे एक सलाह दिया कि इस तरह के अपराध और लुट-पाट से बेहतर है कि क्यूँ न आप उस घर के व्यक्ति का अपहरण कर लेते हैं और बदले में फिरौती की रकम लेकर उसे छोड़ देते हैं--- उस अपराधी को यह सुझाव काफी पसंद आया और इस प्रकार बिहार में अपहरण उद्द्योग की नीवं पड़ी।
          भारत में शासन के प्रति अपने आक्रोश को प्रदर्शित करने का हमें पहला प्रमाण हमें राजस्थान के इतिहासकारों से मिलता है। इतिहासकर बताते हैं कि राजस्थान में 1586 में कवियों के धरने और प्रदर्शन के कई उदारहण मिलते हैं। जोधपुर के तत्कालीन राजा उदय सिंह ने जब उनकी आग्रह पर ध्यान नहीं दिया तब विरोध में 185 कवियों ने एक-एक कर अपनी जान दे दी थी। जोधपुर की नाट्य-संस्था 'रम्मत' अपने नाट्य-मंचन के द्वारा इन कवियों के इस सत्याग्रह को याद करती एवं दिलाती है। मारवाड़ रियासत का ‘आऊआ’ नमक स्थान पर कवियों का समूह धरने पर बैठा था। आऊवा के स्थानीय नागरिक इन कवियों के समर्थन में खड़े थे जबकि जोधपुर के राजा उदय सिंह कवियों से नाराज़ थे। "दरअसल ये सत्याग्रह जोधुपर की तत्कालीन सता के विरुद्ध था, जिसमें कवियों ने राजा को क्षति नहीं पहुंचाई, बल्कि ख़ुद अपने प्राणों की भेंट चढ़ा दी।“ ये प्राचीन धरनों में से एक धरना है। इससे यह प्रमाणित होता है कि भारत में राजशाही के दौर में भी सत्याग्रह की परंपरा रही है
          मुग़ल साम्राज्य में भी हमें कई प्रमाणिक धरने एवं प्रदर्शन का साक्ष्य प्राप्त होता है। जब भारत में मुस्लिम शासन का सूत्रपात हुआ तो उसी समय से हिंदुओं पर ‘जजिया’ कर लगाकर उनका उत्पीडऩ करने का क्रम भी जारी हो गया था। ‘जजिया’ एक प्रकार का धार्मिक कर था जो केवल हिंदुओं से, मुस्लिम शासन में रहने के कारण हिंदुओं को अपने जीवन और संपत्ति की सुरक्षा करता तथा सैनिक सेवा से मुक्त रखने के लिया अदा किया जाता था‘जजिया’ कर इस बात बात को प्रमाणित करती है कि या तो हिन्दू मुस्लिम धर्म को स्वीकार करें, अन्यथा अपने आर्थिक शोषण के लिए तैयार रहें।
          ‘जजिया’ की वास्तविकता को जानकर हमारे देश के लोगों ने उसके विरूद्घ भी जन जागरण किया, विद्रोह किया और सुल्तान को अपनी व्यथा-कथा सुनाकर इस अन्याय परक व्यवस्था को समाप्त करने की प्रार्थना की। अफीफ के अनुसार फीरोज तुगलक अपना शासन शरीयत के प्राविधानों के अनुसार चलाता था। इसलिए उसने ब्राह्मणों से भी जजिया लेना आरंभ कर दिया था।
          जब इस राजाज्ञा की जानकारी ब्राह्मणों को हुई तो वे एकत्रित होकर सुल्तान के पास पहुंचे और उससे अपना आदेश वापस लेने की आग्रहपूर्ण याचना करने लगे, उन्होंने सुल्तान को स्पष्ट कर दिया कि यदि सुल्तान ने उनकी बात नही मानी तो वह स्वयं को जीवित ही जला लेंगे। सुल्तान पर ब्राह्मणों की इस धमकी का कोई प्रभाव नही हुआ। तब ब्राह्मणों ने सुल्तान के निवास ‘कूश्के शिकार’ के बाहर अनशन और प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया
          राजधानी के अन्य हिंदुओं को जब ब्राह्मणों के धरना-प्रदर्शन अनशन की जानकारी हुई तो उन्होंने ब्राह्मणों को समझाया कि जजिया के कारण आत्महत्या करना उचित नही होगा। यदि सुल्तान जजिया समाप्त नही करता है, और ब्राह्मणों के विरूद्घ जजिया संबंधी राजाज्ञा पूर्ववत रहती है, तो वह स्वयं ब्राह्मणों की ओर से जजिया भुगतान कर देंगे।

आज वर्तमान परिपेक्ष्य में जब भी आम लोगों की बातचीत में धरना-प्रदर्शन शब्द का ज़िक्र होता है तो हमारे जेहन में जो सबसे पहली बात ध्यान में आती है कि आज कौन से इलाकों में ट्रैफिक जाम लगने वाला है और इससे उन्हें कितनी तकलीफ होगी। कोई ये नहीं सोचता कि जो व्यक्ति धरना प्रदर्शन कर रहा है उसकी तकलीफ क्या है। यानी व्यवस्था से लेकर आम लोगों तक किसी को भी धरना प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं है। हर कोई इस शब्द को लेकर संवेदनहीन हो गया है क्यूंकि आज ज़्यादातर लोगों के लिए धरना प्रदर्शन का अर्थ सड़क- जाम, नारेबाज़ी, सार्वजनिक संपत्तियों को क्षति पहुँचाना, यातायात के साधनों को सुचारू रूप से न चलने देना, आगजनी, लूटपाट और अफरातफरी का माहौल पैदा करना मात्र होता है। ये अपने आपमें बहुत चिंता की बात है क्योंकि ऐसे हालात में अगर किसी दिन हमें किसी जायज़ मुद्दे के लिए धरना-प्रदर्शन करना पड़ा तो हमारी बात भी कोई नहीं सुनेगा

तथ्य:

दुनिया में सबसे पहला विरोध प्रदर्शन 195 ईसा पूर्व में रोमन साम्राज्य के दौर में हुआ था। इस विरोध प्रदर्शन में महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई थी।

प्राचीन भारत में कर्ज़ से मुक्ति के लिए भूख हड़ताल करने का रिवाज़ था जबकि इतिहास में सबसे पहले भूख हड़ताल का ज़िक्र आयरलैंड में Civil Rights के लिए किया गया है

नमक सत्याग्रह के नाम से भारत के इतिहास में चर्चित दांडी यात्रा भी विरोध के ऐतिहासिक महत्व को दिखाती है।

दुनिया में सबसे लम्बे समय तक विरोध करने का रिकॉर्ड अमेरिका की एक महिला के नाम पर है। परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के विरोध में इस महिला ने 30 वर्षों से ज़्यादा समय तक विरोध प्रदर्शन किया था और जनवरी 2016 में White House के सामने उसकी मौत हो गई।








Comments

  1. आज धरना प्रदर्शन आम है और उसके नाम पर अराजकता है आख़िर प्रजातंत्रइसका नाम तो नहीं ना कानून को हाथ में लेना प्रजातंत्र है तो इस पर कोई सीमा,कर्तव्य निर्धारण क्यों नहीं?
    धरने के तथ्य अत्यंत रोचक हैं, धन्यवाद

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