सूर-काव्य में कृष्ण का बाल-वर्णन !!
जिस प्रकार तुलसीदास जी का नाम राम संबंधी भक्ति साहित्य में
आधार से लिया जाता है ठीक उसी प्रकार कृष्ण संबंधी भक्ति साहित्य
में के
क्षेत्र में
श्री सूरदास जी का नाम अग्रणी है। वस्तुतः तथ्य तो यही है कि कृष्ण संबंधी भक्ति साहित्य
के क्षेत्र में संपूर्ण भारत में और सभी भारतीय भाषाओं में काव्य रचना की गई है।
इसके बावजूद वात्सल्य के क्षेत्र में सूरदास जी के काव्य के आगे अन्य सभी न्यून
पड़ जाते हैं। उनकी कृष्ण के जन्म से लेकर युवावस्था तक की कविताओं में इतने रस
हैं कि ब्रजभाषा को जानने वाला व्यक्ति भी उसमें अवगाहन करने
लगता है और अर्थ समझ में आते ही वह उनके काव्य से अत्यंत प्रभावित होता है।
सूरदास
जी का
समय मध्य युग का वह समय था, जब लगभग संपूर्ण भारत
पर मुस्लिम
शासन था। छोटे-मोटे हिंदू राजे-रजवाड़े थे तो उन्हें झूठे
अहं और शान
की खातिर आपस में लड़ने से फुर्सत ही नहीं मिलती थी। ऐसे समय में दक्षिण के
श्रीवल्लभाचार्य जी ने मथुरा में कृष्ण भक्ति की गंगा बहा दी।
उन्होंने अपने कुछ शिष्यों के कृष्ण-काव्य के गुरु मंत्र बताये।
आगे चलकर उनके शिष्य ‘अष्टछाप’ के नाम से भी
जाने गए। प्रसंगवश अवश्य जानना
समीचीन होगा कि इन अष्टछाप कवियों में एक थे कुंभनदास, जिन्हें अकबर ने
अपने दरबार में बुलाया था उस वक्त की उनकी एक कविता बड़ी
प्रसिद्ध है
भगत को कहा सीकरी काम।
आवत जात पन्हैया टूटीं, बिसरि
गयो
हरिनाम।।
जाको मुख देखें दुख लागै,
ताको करनो परयो प्रणाम।
‘कुंभनदास’
लाल गिरिधर बिनु और सबे बेकाम।।
उनकी
कविताओं का ताना-बाना द्रष्टव्य है। नंद के महल में खुशियों
का माहौल है क्योंकि कृष्ण का यहां जन्म हुआ है-
सोभा-सिंधु
ना अंत
रही री।
नंद-भवन
भरी पूरी उमंगि चलि, ब्रिज की बीथिनि
फिरति री।।
जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं, उपजी ऐसी सबनि कही री।
सूरस्याम प्रभु इंद्र-नीलमणि ब्रज-बनिता उर लाइ गही री।।
बालकृष्ण
झूले में हैं, जिसे माता यशोदा झूला रही
है।
कृष्ण को नींद आ जाए, इसके लिए भी उन्हें दुलारती हैं,
प्यार करती हैं और कुछ-कुछ गाती भी हैं—
जसोदा हरि पालनैं झुलावे।
हलरावै, दुलराई मल्हावै जोई-सोई कुछ गावै।।
मेरे लाल को आऊ निंदरिया, काहैं ना आनि सुवावै।
तू काहैं न बेगहिं आवै, तोकौं
कान्हा
बुलावे।।
माता
यशोदा
इच्छा कर रही है कि उनका नन्हा कृष्ण कब घुटनों के बल चलेगा और कब धरती पर अपने दोनों
पांव रखेगा ! कब वह नंद को पिता और उन्हें माता का कर पुकारेगा !
वह यह भी विचार करती हैं कि कब उनका बालक कृष्ण अपने हाथों
कुछ-कुछ खाया करेगा !
सूरदास
के शब्दों में--
जसुमति मन अभिलाषा करे।
कब मेरो लाल घटुरुवनि रेंगे, कब
धरनी पग द्वैक धरे।।
कब नंद हिं बाबा कहि बोले, कब जननी कहि
मोंहिं ररे।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहे, अपने कर सों
मुखहि भरे।
कब हँसि बात कहेगो मोसों, जा छबि तै दुख
दूरि हरे।।
यशोदा
की यह इच्छा है कि बालकृष्ण स्वयं चलें, पूरी होती है।
कृष्ण घुटने के बल चल रहे हैं। संपूर्ण शरीर धूल-धूसरित है और मुंह में दही लगा
हुआ है—
सोभित कर नवनीत लियें।
घुटुरुन चलत रेनु तन मंडित,
मुख
दधि
लेप किएं।।
सिखवत चलन जसोदा
मैया।
अरबराय कर पानि
गहावति, डगमगाय
धरे पैयाँ।।
बाबा नंद के साथ बालकृष्ण भोजन कर रहे हैं। कवि
सूरदास कहते हैं कि पिता उनसे एक और खाने के लिए मनुहार कर रहे हैं—
जेंवत कान्ह नंद इकठौरे।
कछुक
खात लपटात दोउ कर,
बालकेलि अति भोर।।
बरा-कौर
मेलत मुख भीतर, मिरिच
दसन टकटौरे।।
सूर
स्याम कौं मधुर कौर दे कीन्हों टाट निहोरे।।
कृष्ण थोड़े बड़े
हुए हैं तो उन्हें भी अपने साज-श्रृंगार की फिक्र होने लगी
है। उनकी बड़ी चिंता यह है कि उनकी चोटी शीघ्रतापूर्वक क्यों नहीं
बड़ी हो रही है, जबकि इतना सारा समय व्यतीत हो
गया है—
मैया, कबहिं बढैगी चोटी?
किती बार मोहि दूध
पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी।।
कृष्ण
अब बड़े हुए हैं। इसलिए आज पहली
बार गोप-बालकों के संग गोचारण को गए थे। वहां
से वापस आने पर यशोदा उन्हें दौड़कर अपने अंत में भर लेती हैं। कृष्ण अपनी मां
को जंगल में गाय चराते वक्त भी नहीं भूले थे, सो माँ
के लिए कुछ जंगली फल लेकर आए हैं। माता उन्हें पाकर निहाल हैं। फिर भी वह कहती हैं कि उसे कुछ नहीं चाहिए,
वह तो सिर्फ कृष्ण को पाकर ही परम सुखी है।
जसुमति दौरी लिए हरि कनियाँ।
आजु
गयो मेरो गाइ चरावन, हौं
बलि जाऊं निछनियाँ।।
मो
कारन कछु आन्यो है बलि, बन-फल
तोरि नन्हैया।।
तुमहिं
मिलाएँ मैं अति सुख पायो, मेरे
कुँवर कन्हैया।।
बालक
थोड़ा बड़ा होता है तो बाहर खेलने जाएगा ही। खेल-खेल में
संगी-साथी परिहास करते हैं, कुछ चिढाते
भी हैं। मगर यहाँ तो कृष्ण
को
उनके बड़े भाई बलराम को ही चिढ़ाने में अग्रणी हैं,
जिसकी शिकायत में माता यशोदा से करते हैं। कृष्ण की शिकायत यह है कि बलदेव कहते
हैं कि कृष्ण को यशोदा ने जन्म नहीं दिया, बल्कि उसे खरीद
कर ले आई है। सबूत के तौर पर बलदेव यह उदाहरण देते हैं कि नंद और यशोदा तो गोरे हैं,
फिर वह काले कैसे हो गये? बालक कृष्ण खींझते
हुए बताते हैं—
मैया,
मोहि दाऊ बहुत खिझायो।
मोसौं
कहत मोल को लीन्हो, तू
जसुमति कब जायो?
गोर
नंद जसोदा गोरी, तू कत
स्यामल गात।
यह
चिढाना जब बहुत बढ़ जाता है तो कृष्ण गुस्से में कहते हैं
कि अब वह कभी खेलने नहीं जाएंगे—
खेलन अब मेरी जाए बलैया।
जबहीं मोहि देखत लरिकन संग, तबहिं खिझत बल भैया।।
मोसौं
कहत तात बसुदेव को देवकि तेरी मैया।।
ऐसें
कहि सब मोहि खिझावत, तब
उठि चल्यो खिसैया।
कृष्ण
ऐसा
इसलिए करेंगे कि माता यशोदा सिर्फ उन्हीं को दंडित करती हैं,
बलदेव को कुछ नहीं कहती इसलिए ‘यह ले अपनी लकुटी
कमरिया बहुतहि नाच नचायो’
कहते हुए धमकाते भी हैं। कृष्ण के इस आवेशमय मुखमंडल को देखकर
माता यशोदा और निहाल हो जाती हैं-
तू मोही
को मारन सीखी, दाऊहि कबहुं न खीझे।
मोहन-मुख
रिस की ये बातें,
जसुमति सुनि-सुनि रीझे।।
जब
यह सर्वविदित हो चुका है कि कृष्ण ब्रज के नहीं, मथुरा के बालक
हैं तो कंस ने मथुरा के एक समारोह में उन्हें आमंत्रित किया है,
सो वह जा रहे हैं। आखिर एक राजा की बात को कौन टाल सकता है?
मगर शहर के अपने संभावित खतरे हैं, जिससे यशोदा बेखबर
नहीं हैं। वह चीत्कार कर विलाप
करती हैं कि इस ब्रज में उनका कोई शुभचिंतक है,
जो कृष्ण गोपाल को जाते हुए रोक ले—
जसोदा बार-बार यों भाखे।
है कोऊ
ब्रज मैं हितु हमारो, चलत
गुपाले राखे।।
माता का हृदय मानता ही नहीं। उनका किसी पर बस नहीं
चलता तो घर बैठे नंद पर ही फट पड़ती है कि कैसे उन्होंने कन्हैया को जाने दिया—
यशोदा कान्हा-कान्हा
के बूझे।
फुटि न
गई तुम्हारी चारो,
कैंसें मारग सूझे।।
इक तो
जरी जात बिनु देखें, अब
तुम दीन्हो फूंक।
यह
छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटी न भई द्वे टूक।।
कृष्ण अब मथुरा वासी हो
गए हैं। यही नहीं अब वे देवकीनंदन भी बन गए हैं। यशोदा ने दिल पर पत्थर रख लिया है।
इसलिए अब वे देवकी से
निवेदन करने में कृष्ण का कुशल समझती हैं। वह अपने संदेश में कहते
हैं कि ठीक है कि वह उनके बेटे कृष्ण की दाई
माँ रही हैं। फिर भी वे
अनुरोध करती हैं कि कृष्ण का ठीक से ख्याल रखा करें। ख्याल कैसे?
वह ऐसे कि उबटन, तेल,
गर्म जल आदि देख कर भाग जाने वाले कान्हा को मनुहारकर
स्नान कराना है और सुबह सुबह ही उन्हें माखन रोटी देना है –
संदेसो
देवकी सौं कहियो।
हौं तो धाई
तिहारे सुत की,
मया करत ही रहियो।।
तेल उबटनो अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते।
जोई-जोई माँगत सोई-सोई देती, क्रम-क्रम करिके
न्हाते।।
जदपि टेव तुम्ह जानति उन्ह
की, तऊ मोहि कहि
आवै।
प्रात होत मेरे लाड़ लडेतें, माखन-रोटी
भावे।।
समसामयिक
लेखन में जिस आम आदमी की चर्चा आती है, उसमें आज से 500
साल पूर्व सूरदास ने कृष्ण के माध्यम से प्रतिष्ठा दे दी थी। श्रीकृष्ण किसी
चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र नहीं है और ना ही उनका लालन-पालन वैभवशाली ढंग से होता
है। उनका जीवन ही संघर्ष से भरा पड़ा है। जन्म के समय से ही उनका पाला
उत्पाती तत्वों से पड़ता है, जिसे श्री कृष्ण तथाकथित
चमत्कारिक ढंग से निपटाने हैं।
सूरदास ने उस चमत्कृत पक्ष को न लेकर कृष्ण के मधुरतम
पक्ष के लिया है। उन्होंने कृष्ण को ग्वाले के बेटे के रूप में
प्रस्तुत किया है। कृष्ण तदनुरूप आचरण भी करते
हैं। धूल धक्कड़ में साधारण बच्चों के समान लोटते हैं,
गांव के हम उम्र बच्चों के संग खेलते हैं। बचपन में कभी मिट्टी खाते हैं तो कभी ‘मैया, मैं तो चंद्र-खिलौना
लेहो’ कहते
हुए चंद्रमा के लिए हठ करते हैं। माता यशोदा से कभी छड़ी की मार
खाते हैं कभी ओखल में बांधे जाते है। अवसर मिलते ही माखन-दही चुराते हैं और लकुटिया
लेकर वन उपवन में गाय चराते हैं। पनघट पर गोपियों को परेशान करते हैं और यहाँ तक की उनकी मटकियाँ तक फोड़ देते हैं। गोप-बालों के साथ
खेलते हैं, गाते हैं और चैन की बंसी बजाते हैं।
इस
प्रकार मां बेटे की प्यार-मनोहर-अनुराग की स्थिति
हर समाज में, हर समय में रही है और सूरदास की
इस मधुर प्रस्तुति को आलोचकों ने मां और बेटे,
भक्त और भगवान, ईश्वर और माया के रूप में देखने का प्रयास किया है। चूँकि
यह पद गेयरूप में है, इसलिए आम जनता
के बीच, मंदिरों से लेकर चौपालों तक मौखिक रूप से
लोकप्रिय रहे हैं। इन पदों की प्रासंगिकता और मधुरता इन्हें आज भी प्रासंगिक और
लोकप्रिय बनाए हुए हैं।
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