'स्वाधीन कलम के धनवान कवि' ~ गोपाल सिंह ‘नेपाली’ !!


आधुनिक काल में जिन गीतकारों ने अपना मौलिक परिवेश निर्मित किया है, उनमें गोपाल सिंह नेपाली का स्थान सबसे भिन्न और विशिष्ट है इनकी रचनाधर्मिता बहु-आयामी और प्रगतिशीलता से पूर्ण है राष्ट्रीयता, आध्यात्मिकता, प्रकृति, मानवीय पीड़ा और जन संघर्ष उनके गीतों में स्वर प्राप्त करते हैं यदि वह प्रेम, श्रृंगार और मानवीयता के कवि हैं तो जनक्रांति भी उनकी रचनाधर्मिता का प्राण तत्व है चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा में जो बलिदानी भाव और देश के लिए लड़ने का ओज है,से उनकी काव्य प्रतिभा और जीवन दर्शन का संकेत मिलता है
          सेना में कार्यरत रेलबहादुर सिंह के जेष्ठ पुत्र गोपाल बहादुर सिंह नेपाली के उपनाम को सार्थक करते हैं 11अगस्त 1911 को बिहार के बेतिया में उनका जन्म होता है उनका देहावसान 17अप्रैल 1963 को भागलपुर रेलवे स्टेशन पर ही आकस्मिक निधन हो जाता है
          इनकी प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण स्तर पर होती है, पर पिता के साथ इन्हें देहरादून, मंसूरी, अफगानिस्तान तक भाग-दौड़ करते हुए शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है इनकी शिक्षा-दीक्षा माध्यमिक स्तर तक ही होती है, किंतु वह स्वाध्याय के बल पर हिंदी एवं अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित करने में सफल रहते हैं नेपाली रतलाम से प्रकाशित रतलाम टाइम्स नामक अंग्रेजी तथा पटना से प्रकाशित सप्ताहिक हिंदी योगी के संपादन में सफल होते हैं
          उन्हें आजीवन जन जागरण अभियान में एक सेना के रूप में भ्रमणशील राष्ट्रवादी गीतकार की प्रतिष्ठा प्राप्त है साहित्य के मंच से लेकर फिल्मी जगत में वह फिल्मों के माध्यम से धूम मचाते हैं भाव और दर्शन की अभिव्यक्ति प्रकृति के माध्यम से निरंतर करते हैं इनके गीतों में चित्र प्रेम-संवेग का अनुपम वैशिष्ट्य है उनमें अत्यंत सादगी, माधुर्य और प्रवाह है इनके गीत भाव-भूमि और भाषा की सरलता के कारण जन-संवैद्ध  और जनप्रिय है इनकी प्रमुख कृतियां है उमंग, पंछी, रागिनी, पंचमी, नवीन, नीलिमा, हिमालय ने पुकारा
           गोपाल सिंह नेपाली हिंदी के समर्थक संवेदनशील गीतकार है उनकी रचनाओं के रग-रग में योवन, श्रृंगार और राष्ट्रीयता पर्याप्त है नवप्रभात के पहला झोंका है जो चेतना, जागृति, गति एवं कर्मठता के साथ उत्कर्ष आनंद का प्रतिरूप है उनमें पीड़ा को आनंद में बदलने की क्षमता है- 
मैं प्रभात का पहला झोंका/ मेरे सुर में जगीं कुंज की गलियां/ मुझ से लगकर हंसी नवेली कलियां/ मैंने डालों के पात हिलाये/ तन कांपा, मन सिहरा, पंछी चौंका।'
          नेपाली स्वाधीनता, स्वाभिमान और निजी अस्मिता के प्रति जागृत रचनाकार हैं, किंतु उनकी दृष्टि देश और समाज पर भी जाती है- 
लिखता हूं अपनी मर्जी से है, बचता हूँ कैंची दर्जी से, आदत न रही कुछ लिखने की, निंदा वंदन खुदगर्जी से
          वह व्यक्ति वह मुक्ति आंदोलन को व्यक्ति, समाज, धर्म और देश की कविता के लिए भी आदर्श घोषित करते हैं- 
     ‘आजाद रहा देश तो फिर उम्र बड़ी है/ मंदिर भी है गिरिजा भी है, मस्जिद भी खड़ी है/ संग्राम बिना जिंदगी आंसू की लड़ी है
          वह मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष, अस्मिता और मुक्ति के रचनाकार हैं जड़ता, विद्रूपता और विषमता का अंत कर राष्ट्र के नवनिर्माण की प्रेरणा व देते हैं- 
     ‘आकाश है स्वतंत्र, है स्वतंत्र मेखला/ यह श्रृंग भी स्वतंत्र ही खड़ा बना ढाला है/ जल-प्रपात कटता सदैव श्रृंखला/ आनंद शोक, जन्म और मृत्यु के लिए/ तुम योजना करो, स्वतंत्र योजना करो।'
          गोपाल सिंह नेपाली राष्ट्रीय एवं भारतीयता के प्रतिष्ठापक गीतकार है राष्ट्रीय स्वतंत्रता-आंदोलन की संघर्ष-चेतना को वश चरमोत्कर्ष प्रदान करते हैं उत्सर्ग का गर्व घोषित करते हैं स्वतंत्रता आन्दोलन जोर पकड़ चूका है एक तरफ महात्मा गांधी का अहिंसात्मक आंदोलन है तो दूसरी तरफ भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों का सशस्त्र संघर्ष। दोनों धाराओं ने कवि को प्रभावित किया। गांधी के अहिंसात्मक सत्याग्रह को नया आयाम प्रदान करते हुए लिखते हैं
     ‘है अपूर्व यह युद्ध हमारा, हिंसा की न लड़ाई है,/ नंगी छाती की तोपों के ऊपर चढ़ाई है,/ तलवारों की धार मोडने गर्दन आगे आयी है,/ सिर की मारों से डंडों की होती यहां सफाई है,/ मर मिटने में होता है मान यहां बलवानों का, जिसमे अंत नहीं आहुति का, प्राणों के बलिदानों का 
          1942 के अगस्त क्रांति की विफलता पर नेपाली का शौर्य हुँकार उठता है और संघर्ष की प्रेरणा गूंज उठती है- 
     ‘जंजीर टूटती नहीं कभी अश्रुधार से,/ दुख दर्द दूर भागते नहीं दुलार से,/ हटती न दासता पुकार से, गुहार से/ इस गंगतीर बैठ आज राष्ट्र शक्ति की/ तुम कामना करो, किशोर कामना करो‘ 
          तो दूसरी ओर  भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसों की शहादत ने भी नेपाली को उद्द्वेलित किया- वह चल बची हुई टुकड़ी, अब कर न विचार तनिक क्या बीता / कदम-कदम तर ताल दे रहा, गरज, दमक,हुंकार पलीता/ मरते हैं डरपोक घरों में, बाँध गले रेशम का फीता/ यह तो समर, यहाँ मुट्ठी भर मिटटी जिसने चूमी, जीता
          राष्ट्र की मानवीयता और उत्सर्ग-भावना को उजागर करने वाले गीतकार हैं नेपाली वह हिमालय और हम में हिमालय की उच्चता के साथ इस देश की गौरव और स्वातंत्र्य-भावना को बड़ी कलात्मकता से स्वर देते हैं- 
     ‘अंबर में सिर, पाताल चरण/ मन इसका गंगा का बचपन 
          स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में ढ़ते हुए सामाजिक-आर्थिक वैषम्य जनसामान्य के जीवन और शासनतंत्र में व्याप्त कदाचार के विरुद्ध नेपाली जी आवाज उठाते हैं-   
     ‘जब चंद्र किरण में महलों की दीवार चमकती रहती है/ झोपड़ियों से चांदनी लिपट रात भर सिसकती रहती है 
वह जन क्रांति की चेतावनी देने से भी नहीं हिचकिचाते – 
     ‘जब देखे ताज चांदनी में/ कुटिया का दीप नहीं देखे  
क्षेत्रवाद एवं सांप्रदायिकता पर वह तीव्र चोट करते हैं- 
     चल रही हिंद में हर एक की अपनी बोली/ तोड़कर देश को आजाद है होली-टोली/ मिल गया राजा तो टुकड़ों के लिए लड़ते हैं/ क्या इसी के वास्ते गांधी को लगी थी गोली 
          नेपाली राष्ट्रप्रेम की बेदी पर सर्वस्व अर्पित करने वाले राष्ट्र-चेता कवि हैं, किन्तु स्वाभिमान और स्वाधीनता की प्रतिमूर्ति भी- मेरा धन है स्वाधीन कलम
गोपाल सिंह नेपाली जनधर्मी कवि हैं, जनसंघर्ष और जनक्रांति के गायक हैं नेपाली को जनता में असीम आस्था व विश्वास है- 
     कोई जनता को क्या लूटे/ कोई दुखियों पर क्या टूटे/ कोई भी लाख प्रचार करें/ सच्चा बनकर झूठे झूठे/ अनमोल सत्य की रत्नहार लाती चोरों से छीन कमल/ मेरा धन है स्वाधीन कलम 
          उमंग की मोहन से रचना में नेपाली जी शोषित-पीड़ित जनता के यथार्थजीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं और मुक्ति का आह्वान करते हैं- 
     ‘पर इससे क्या होता जाता है/ हम दुखियों को मोहन/ यहां हमारे घर में जारी/ वैसा ही निष्ठुर दोहन/ कितनी टूटे रोज लाठियां/ निरपराध नंगे सर पर/ होती है दिनरात चढ़ाई/ भूखों के रीते घर पर/ छोड़ो यह रोटी का टुकड़ा/ अदना चावल का दाना/ आओ मोहन, शंख बजाओ/ पहनो केसरिया बाना।
          नेपाली पराधीन भारत की आर्थिक विपन्नता और स्वतंत्रता का यथार्थ चित्रण करते हैं वह भारत की सामाजिक संरचना में व्याप्त जातिवादी और सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं और समाजवादी प्रगतिशील मूल्यों की प्रतिष्ठा का उपक्रम करते हैं आर्थिक, शैक्षिक, औद्योगिक प्रगति के बावजूद अंग्रेजी सत्ता स्वाभिमान के प्रतिकूल है, अतः नेपाली जी मुक्ति का शंखनाद करते हैं
     ‘दुनिया में गुलामी होगी/ मानव की मानव पर कायम/ उठो तुम्हारे संघर्षों से/ एक नया संसार बनेगा/ बढ़ो, लगा दे आग चिता पर/ आज गुलामी को लना है/ बढ़ो गीत विप्लव का गाते/ थोड़ी दूर और चलना है
          उन दिनों जब हमें माध्यमिक से मैट्रिक तक के वर्ग में उनकी कवितायेँ पढ़ाई जाती थीं, जिनमें भाई-बहन शीर्षक कवितायेँ हम छात्रों एवं किशोरवय के लोगों के ह्रदय में बस गयी थी-
     ‘तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाला बनूँ-
     तू बन जा हहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूँ
     आज वसंती चोला तेरा, मैं भी सज लूँ, लाल बनूँ
     तू भगिनी बन क्रांति कराली, मैं भाई विकराल बनूँ।।'

हिंदी गीतों के अमर गायक गोपाल सिंह नेपाली की रचनाओं में राष्ट्रीयता का उफनता सागर पलता है निराला, दिनकर और पंत की कविताओं में इसी तरह की प्रखरता और जागरण है उनकी भाषा में झरने की गति, आकाश की मुक्तता और नदी का उद्गम वेग है जो स्वछंद एवं रमणीय है, मुग्ध और प्रेमसिक्त करने में समर्थ है उनकी भाषा में लोकात्मकता और तरलता है उनकी भाषा की निजी पहचान और अस्मिता है- 
     ‘मैं हूं अपना आप नमूना, / मेरा अपना ढंग है‘--- जैसे उद्दात व्यक्तित्व और राष्ट्रिय चेतना के अमर गीतकार गोपाल सिंह नेपाली सदैव चिरस्मरणीय हैं 




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