जनमानस के महानतम संत-कवि ~ गोस्वामी तुलसीदास !!
भूषण भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहे हित होई।।@रामचरितमानस
गोस्वामी तुलसीदास ऐसे कवि
हैं जिन्हें जिस किसी भी निकस पर कसिए, सर्वदा खरे ही
उतरेंगे। यदि आंग्ल साहित्य को शेक्सपियर पर गर्व है, जर्मन साहित्य को गेटे
पर अभिमान है
तो हिंदी-साहित्य
भी तुलसी को पाकर फूला नहीं समाता। इतना ही नहीं यदि
एक ही व्यक्तित्व में, कवि, भक्त, दार्शनिक तथा समाज सुधारक इन चारों का समवाय देखना हो तो वह गोस्वामी तुलसीदास का ही विरल-विशिष्ट व्यक्तित्व है।
किंतु ऐसे महापुरुष तुलसी का प्रारंभिक जीवन बड़ा ही
कष्टमय रहा। वे उपेक्षाओं का जहर पीकर भी
नीलकंठ की तरह मुस्कुराते रहे। जब नए शिशु का आगमन होता है तो माता-पिता की
खुशियों का ठिकाना नहीं रहता। तरह-तरह के उत्सव मनाए जाते हैं। किंतु एक बालक
तुलसी है कि जिनके जन्म ने माता-पिता को चिंता की
चादर में लपेट दिया। गोस्वामी जी कहते हैं-
मातु पिता जग जायइ
तज्यो, विधिहू न लिखी
कछु भाल भलाई,
नीच,
निरादर भाजन, कादर कूकर टूकन
लागि ललाई।
इतना
ही नहीं, बालक तुलसी को चने की चार दानों के लिए दर-दर की खाक छाननी
पड़ी। एक भी ऐसा मनुष्य न मिला उन्हें जो सहारा देता। दीनानाथ दीनों
की दुर्दशा कब तक देखते ! जब उन्होंने सहारा दिया
तभी विधाता के गण भी सिहाने लगे-
जायो
कुल
मंगल, वधावनो ओ बजायो सुनि,
भयो परिताप पाप जननी-जनक
को
बारे में ललात
विललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हौं
चारि फल चारि ही चनक को
तुलसी सो साहब समथ को सुसेवक है,
सुनत सिहात सोच विविधू गनक को
नाम,
राम ! राबरो सयानो किधौं बाबरो
जो करत गिरी तें गरु त्रिन तें तनक
को।
ऐसे प्रताड़ित पीड़ित
तुलसीदास को बिल्कुल मूर्ख रहना चाहिए था, किंतु वे
प्रतिकूल परिस्थितियों की परवाह न कर अपनी
साधना के पथ पर बढ़ते रहें और उसी सीमा पर पहुँच गए जिसके आगे पथ
होता ही नहीं। कहा जाता है कि वह अपने यौवन
में
नारी की मृगमरीचिका के पीछे भी दौड़ते रहे। इसके प्रमाण में ‘विनयपत्रिका’
की पंक्ति ही
कहती है-
“योवन युवती का कुपथ्य करि” अर्थात योवन के
ज्वर में युवती का कुपथ्य किया। किंतु,
यदि हम ‘विनयपत्रिका’ के दैन्य-बोझिल
पंक्तियों को तुलसीदास की आपबीती मान ले तो उनके-जैसा लफंगा तो
शायद ही संसार में हो ! यह भी कहा जाता है कि
उन्होंने पत्नी का नाम रत्ना था। रत्ना की इस
फटकार-
लाज न लागत आपको,
दौड़े आयहु साथ।
धिक्-धिक्
ऐसे प्रेम को, कहा कहो मैं नाथ।।
अस्थि-चरम-मय
देह मम, तामें जैसी प्रीति।
तैसी
जो श्रीराम महँ, होती न तो भवभीति।।
ने उनके लौकिक प्रेम को
पारलौकिक प्रेम में उन्नीत किया। यह कथन बिल्कुल निर्भ्रांत
नहीं माना जा सकता। इश्क मिजाजी के बगैर इश्कहकीकी हो
ही
नहीं सकती, ऐसा कहने वालों के सामने अनेकानेक विरल महात्माओं
का जीवन प्रस्तुत
किया जा सकता है
गोस्वामी
तुलसीदास अध्ययन के साथ पर्यटन करते रहे। ऐसे स्थानों में काशी,
अयोध्या, चित्रकूट तथा प्रयाग आदि उल्लेख है। जब अध्ययन और
अनुभव से उनके मानस का मधुकोश भर गया उन्होंने रामचरित के माध्यम से युगजीवन
को अभिव्यक्त करना आरंभ किया। उनका विशाल साहित्य हमारे सामने है।
गोस्वामी जी को अपने जीवन काल में ही पर्याप्त समादर
प्राप्त हुआ। बुढ़ापे में उनका शरीर रोग से
जर्जर
हो गया। ऐसे संयत व्यक्ति को इतनी दैहिक पीड़ा हो, इसे
पूर्वजन्म का ही संस्कार कहा जा सकता है-
पांव
पीर,
पेट पीर, बाहू
पीर, मुँह
पीर
जरजर
सकल सरीर
पीर मई भई है।
इस पीड़ा से अपनी रक्षा के
हेतु वे पीड़ाहन्ता हनुमान से प्रारंभ
प्रार्थना करते हैं और फिर
भी जब पीड़ा से मुक्त नहीं होते तो अपनी पार्थिव काया छोड़ देते हैं-
तुमतें कहा ना होय, हहा ! सो बुझैय मोहि
हौं हूँ रहो मौन की, बयो सो जानि लुनिय।
गोस्वामी जी का जन्म यदि
1589 संवत मानें और मृत्यु 1680 संवत तो प्रायः उनका जीवनकाल 91
वर्षों का है। अपने सुदीर्घ जीवन में उन्होंने अनेक रचनाएँ कीं, लेकी उनमें 12 ग्रंथ
प्रमाणिक माने जाते हैं। ये हैं- रामचरितमानस,
विनयपत्रिका, गीतावली, श्रीकृष्णगीतावली,
पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, कवितावली,
दोहावली, रामाज्ञाप्रश्न, बरवै
रामायण, वैराग्यसंदीपनी तथा रामललानहछू।
वैसे
तो गोस्वामी तुलसीदास
की रचनाएं ‘तुलसी
का पात कौन
बड़ा, कौन
छोटा’- जैसी लोकोक्ति को चरितार्थ करती है, फिर भी उनमें ‘रामचरितमानस’
और ‘विनयपत्रिका’
सबसे महत्वपूर्ण
है।
‘रामचरितमानस’ ऐसी रचना है जिसकी चर्चा संसार
की श्रेष्ठ भाषाओं में के विचारको ने की है। संसार
प्रसिद्ध पुस्तकों की दो कोटियाँ हैं। एक में वेद,
बाइबल, कुरान-जैसे धार्मिक ग्रंथ आते हैं
और दूसरे में ग्रीक महाकवि होमर की ‘इलियड’
और ‘ओडेसी’, इटालियन
महाकवि दांते की ‘डिवाइन कॉमेडीआ’,
मिल्टन की ‘पैराडाइज लॉस्ट’, शेक्सपियर की ‘किंग
लियर’ और ‘मैकबेथ’,
कालिदास की ‘अभिज्ञानशाकुंतलम्’, रविंद्रनाथ
ठाकुर की ‘गीतांजलि’ जैसी रचनाएं
आती है। किंतु, ‘रामचरितमानस’ में
इन दोनों का आश्चर्यजनक समन्वय हुआ है। यही कारण है कि
यदि ‘मानस’ आस्तिकों का मनोमुकुट
है तो दूसरी ओर साहित्य प्रेमियों का कंठहार भी। मानस इतने गुणों की खान है कि उसका
बखान संभव नहीं है। उसके
एक-दो महत्वपूर्ण
गुणों का विवेचना ही पर्याप्त होगा।
भारतीय
संस्कृति के दो प्रबल स्तम्भ हैं-सत्य और त्याग। इन्ही दो
के आधार पर मनुष्य महान से महान बन सकता है। तुलसी के नायक भगवान राम और उनके
परिवार में सत्य और त्याग का पालन जिस दृढ़ता के साथ हुआ है
वैसा सत्य और त्याग का पालन अन्यत्र दुर्लभ है।
राजा
दशरथ ने कैकई को दो वरदान दिए थे। राजा ने कैकेयी के प्रति अपने वचन निर्वाह के लिए अपने प्रिय
पुत्र राम को चौदह वर्ष का वनवास दिया तथा अपने पुत्र प्रेम को प्रमाणित
करने के लिए अपना शरीर-त्याग किया--
रघुकुल रीति सदा चलि
आई।
प्राण जाए बरु
वचन न
जाई।
राजा दशरथ की आंखों के
तारे सुकुमार राम ने चक्रवर्ती सम्राट की सारी संपदाओं को छोड़कर वन के लिए पैदल
प्रस्थान किया। जिन सीता ने कभी कठोर मार्ग पर गमन नहीं किया था वे
‘जीवन-मूरी’ सीता भी राम
के साथ कष्ट झेलती रहीं। पुर से आगे दो कदम
रखते ही सीता के मधुराधर सूखने लगे थे, भाल
पर जल की कणिकाएं चमकने लगी थी। राम के लिए ये कष्ट साधारण
थे। मार्ग के कंटकों को पांवों तले रौंदते,
गिरी-निर्झरों को पार करते पंचवटी में जब राम रहने लगे तो रावण ने
सीता का हरण किया। राम सीता के विरह में बड़े ही उद्दिग्न हुए। फिर भी वह हार नहीं माने। जड़
उदधि ने लंका
का रास्ता को रोक दिया, फिर भी राम ने नल-नील
की सहायता से उस पर पुल बांध लिया। रावण से उनकी
घमासान लड़ाई हुई। लक्ष्मण मूर्छित भी हुए, फिर भी
विजयालक्ष्मी ने राम का ही वरण किया।
इसका
कारण स्पष्ट की राम ने कभी सत्यवीर त्यागी का पल्ला नहीं छोड़ा। रावण के पास
पाशविक शक्ति थी तो राम के पास आत्मिक शक्ति। रावण को रथी
और राम को बिरथ देखकर भक्त विभीषण का मृदुल ह्रदय विचलित हो उठा।
विभीषण को सांत्वना देने के लिए भगवान राम ने अपने
जिस रथ का वर्णन
किया है, उससे प्रेरणा लेकर हम अपने चरित्र-रथ का
निर्माण कर सकते हैं--
सौरज धीरज जेहि
रथ चाका। सत्य-सील दृढ़ ध्वजा-पताका।।
बल विवेक दम पर हित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे।।
इस भजनु सारथी सुजाना। विरति वर्मा
संतोष कृपाना ।।
दान
परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। सैम जैम नियम सिलीमुख
नाना।।
कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा। एही सम विजय उपाय
न दूजा।।
सखा धर्ममय
अस रथ जाकें। जीत न सकहिं कतहूँ रिपु ताकें।।
अर्थात,
“इस धर्म रथ के शौर्य और धैर्य दो पहिए हैं। सत्य और
शील दृढ़ ध्वजा और पताका हैं।
इस रथ में चार घोड़े हैं जो बल, विवेक, दम(इन्द्रिओं का वश
में होना)
तथा परोपकार है। यह चारों घोड़े क्षमा, दया तथा समतारूपी
रज्जु के रथ में जोते गए हैं। ईश्वर
का भजन ही इस रथ का सारथी है। वैराग्य ही ढाल तथा संतोष ही
तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि ही प्रचंड शक्ति है। श्रेष्ठ निर्मल ज्ञान ही मजबूत
धनुष है। निर्मल और दृढ मन तरकस के समान है। यम यम और
नियम- ये बहुत से वाण हैं।
ब्राह्मणों और गुरुओं की पूजा अभेद्द कवच हैं। हे सखे ! ऐसा धर्ममय रथ जिसका है उसे कभी और कहीं शत्रु पराजित नहीं कर सकते।“
आज
भी विश्व के अनेक राष्ट्र अपनी पैचाशी शक्ति से
दूसरे राष्ट्रों की को पराधीन करना चाहते हैं। किंतु,
जिस राष्ट्र का चरित्र ऊंचा है वह कभी भी विजित नहीं हो सकता।
राम इसलिए भी विजयी हुए कि उन्होंने त्याग और सत्य का साथ कभी नहीं
छोड़ा। कितनी भी विपदाएं आयीं, लेकिन वे अपने मार्ग पर
अड़े रहे।
भारत
को जिस राजगद्दी को दिलाने
के लिए कैकेई ने अपने पति तक का परित्याग
किया, भरत उसे तिनके की
तरह त्याज्य मानते हैं। वह बेचैन हो उठते हैं जब उन्हें ज्ञात होता है कि उनके
आराध्य राम राजगद्दी उनके लिए छोड़कर वन चले गए हैं। भरत के लाख मनाने पर भी भगवान्
राम वनवास त्याग कर नहीं लौटते और
भारत के संतोषार्थ उन्हें अपनी काष्टपादुका देते हैं।
भारत राज्य के समस्त भोगों को छोड़कर नंदीग्राम में योगी की तरह रहते हैं। आखिर अयोध्या का राज्य भगवान राम की
अमानत है, भरत उस अमानत को कृपण
के धन की तरह संभाल कर
रखते हैं, भगवान राम के आने पर उस यथावत लौटा देते हैं--
तेहि
बन बसत भरतबिनु रागा।
चंचरीक
जिमि चम्पक बागा।।
यदि दशरथ के पुत्र राम सत्य और त्याग
की मूर्ति है तो भरत भी। रामायण में अन्य पात्र भी वैसे
ही आदर्श है।
गोस्वामी
तुलसीदास मर्यादा के बंधन में ही सब कुछ प्रस्तुत करना चाहते हैं। आचाररहित
नारी जिस तरह निन्ध्य है, उसी तरह पुरुष भी। ‘मानस’
में पत्नी व्रत और पातिव्रत्य का आदर्श उपस्थित किया गया है। आज के युवक अपनी
चंचल इंद्रियों के जाल में फँसकर नारी का भोग
का खिलौना मानते हैं। आज का तलाक गोस्वामी जी को स्वीकार्य
नहीं है। राम और सीता के दांपत्य जीवन ही उनका आदर्श है। यदि राजा दशरथ की तीन
पत्नियां नहीं होती तो राम को यह कष्ट भोगना पड़ता।
साहित्यकार
अपने युग से विछिन्न नहीं रहता। साहित्य
दर्पण
इसी अर्थ में है कि वह यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करता है। साथ ही साथ वह जीवन
को संवारने सजाने के लिए भी प्रेरित करता है। गोस्वामी तुलसीदास एक तरफ रुढ़िग्रस्त
प्राचीन वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करते हैं, दूसरी तरफ वे वर्णों
की संकीर्णता से ऊपर उठे भी नजर आते हैं। जो व्यक्ति सरल
गुणहीन मित्र की भी पूजा का समर्थन करता है, वहीं भरत को
निषाद का उपहार ग्रहण करते और राम को शबरी के यहां भोजन करते भी दिखाता है।
तुलसी
के आराध्य राम हैं, फिर भी उनमें धार्मिक कट्टरता का अभाव है। वे विभिन्न
देवी-देवताओं की पूजा को भी महत्व देते हैं तथा राम और
शिव में अभिन्नता स्थापित करते हैं। ‘रामचरितमानस’
उनके ग्रंथ का
नाम इसलिए है कि इसे शिव जी ने अपने मन में रच रखा था और समय पाकर पार्वती
से कहा था--
रचि महेस
निज मानस
राखा।
पाई सुसमउ सिवा सन भाखा।
तातें रामचरितमानस वर।
धरेऊ
नाम हियँ हेरि हरखि हर।
दूसरी
महत्वपूर्ण पुस्तक ‘विनयपत्रिका’
है। ‘मानस’ महाकाव्य है तो ‘विनयपत्रिका’ गीतिकाव्य। महाकाव्य में कथावस्तु आवश्यक मानी
जाती है, किंतु गीतिकाव्य में व्यक्तिगत सुखदुखात्मक उद्गार। ‘विनयपत्रिका’
अपने ढंग की निराली पुस्तक है। प्रेमी-प्रेमिका
के पत्र व्यवहार की चर्चा भले ही साहित्य की कल्पना रही हो, किंतु एक भक्त
का भगवान के पास पत्र लिखना बिल्कुल नहीं बात है जो ‘विनयपत्रिका’
में अपनाई गई है। 279
पदों की इस पुस्तक में भक्ति रस की मंदाकिनी उमड पड़ी है।
गोस्वामी जी इसमें अपनी दीनता और कलुष का कच्चा
चिट्ठा उपस्थित करते हुए कलि कि ‘कुचालि’तथा उसके दुराचारों का विवरण भी प्रस्तुत
किया है।
मुक्तककाव्य में ‘कवितावली’ का इसलिए विशेष महत्व है कि हम इसके
उत्तरकांड में तुलसीकालीन परिस्थितियों और समाज का रचना मानचित्र पाते हैं।--
खेती न किसान को,
भिखारी को न भीख, बलि
बनिक
को बनिज न, चाकर को चाकरी।
जीविकाविहीन
लोग सिद्ध्मान सोचबस
कहैं
एक एकं सों, कहाँ जाई, का करी?
इस
तरह हम देखते
हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी क्रांतिकारी थे। उन्होंने दलित-गलित समाज को बदल कर एक नए समाज
की कल्पना ‘रामराज्य’
के रूप में की
थी। यदि जनतांत्रिक या समाजवादी शासन राजा राम की लीक पर
चले कि पृथ्वी पर स्वर्ग उतारा सकता है। इतना
ही नहीं, जिस माध्यम से तुलसी ने अपने विचारों को वाणी दी,
वह जनभाषा थी। केशवदास जी जिस जनभाषा में अपने को ‘शठ’,
‘मंदमति’ आदि कह कर कोसते रहे,
गोस्वामी जी को उसी जनभाषा में रचना करते हुए अपने पर कभी अफसोस नहीं हुआ। क्योंकि
यही तो युग की पुकार थी !
हमारे
सामने राजनीतिक, आर्थिक,
सांस्कृतिक, आध्यात्मिक- जब जो उलझनें आयीं, हम तुलसी के साहित्यद्वार पर पहुँचे और हमें सभी उलझनों का समाधान शीघ्र ही मिल गया।
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