विश्व जनसंख्या दिवस


"पसरते शहर, सिकुड़ते लोग" !!

सुविधाएं जब सनक और रुतबे का रुप ले लेती है, तो दबे पांव जिंदगी में घुन लगना शुरू हो जाता है। कभी शहर का मतलब सुख-सुविधाओं और बेहतर जीवन रहा होगा, पर आज शहरों की हालत देखते हुए ऐसा बिल्कुल नहीं नजर आता। अब हर कोई शहरों की दिक्कतों से रोज रू--रू हो रहा है। वर्तमान में विश्व की 50% आबादी शहरों में रह रही है, और विशेषज्ञों की माने तो 2050 तक दुनिया की 70% आबादी शहरों में होगी। अब सोचना यह है कि आने वाले दिनों में मनुष्य शहरों को और जटिल बनाने की दिशा में विकसित करता है या उसे बेहतर जीवन के लिए अनुकूल बनाता है। आज जब चारों और स्मार्ट सिटी का नारा बुलंद हो रहा है, तो शहरों में मशीन बनकर अपनी जिंदगी का जायजा लेना और जरूरी हो जाता है।
          कहते हैं, सुख और दुख बांट लेने की वस्तु है जीवन में आंतरिक उल्लास का जन्म इसी आधार पर होता है, लेकिन हमारे मन पर ग्रामीण सहजता की जगह जैसे-जैसे शहरीपन चढ़ता गया, वैसे-वैसे सुख और दुख किया परिभाषा बदलती गई। आज हम सुख और दुख दोनों को दबाये जी रहे हैं। देखा जाए, तो प्रगति के सारे यत्न मनुष्य ने सुख की लालसा में ही किए। उसने नित्य नई दुनिया बनाई। जंगलों से निकलकर मैदानों में घर बनाए, पशुपालन शुरू किया फिर कृषि उसके बाद उसने सड़के बनाई, मकान बनाए, फैक्ट्रियां बनाई, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, का, कंप्यूटर, टीवी, सेटेलाइट, मॉल, सिनेमा घर और जाने क्या-क्या! इस नित नई प्रगति के साथ गांव से निकलकर कस्बों और शहरों में बसने लगा। शहर कस्बे बनते गए और नगर महानगर में तब्दील होने लगे। समस्या तब पैदा शुरू होने शुरू हुईजब भौतिक साधनों का महत्व जीवन और संबंधों से ज्यादा हो गया। जब सोच की सहजता नेपथ्य की वस्तु हो गई प्रारंभ में मनुष्य ने प्रकृति से सामंजस्य बिठाते हुए जीवन का विकास किया, लेकिन बढ़ती आबादी और जीवन के सुखों के संचय के भाव ने प्रकृति और मनुष्य के बीच अघोषित समझौते को तोड़ दिया। अब हम प्रकृति से लोहा ले रहे हैं और प्रकृति भी समय-समय पर हमें अपनी शक्ति प्रदर्शन करा रही है।
          यह विकास मनुष्य ने जीवन की सुविधाओं को बढ़ाने के लिए किया था, पर आजीवन जितना बेहतर नजर आता है क्या वह उतना ही बेहतर हो पाया है? प्रकृति और आकाश, जंगल और मैदान, झीलें और नदियां, पहाड़ और समुद्र यह सभी बेहतरीन शिक्षक हैं और हममें से कुछ को इतना कुछ सिखाते हैं जितना हम दूसरी चीजों से नहीं सीख सकते। जब हमने शहर बनाने शुरू किए तो हमें वृक्षों का, पर्वतों का, और नदियों का पूरा ख्याल रहा। हम अपने जीवन को इन से जोड़ते हुए विकास की तरफ बढ़े। लेकिन प्रकृति का सानिध्य आज हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता। वह जुड़ाव के उसके जज्बे को मानव शक्ति ने रौंद दिया है। आज मनुष्य अपने आविष्कारों के साथ इस स्थिति में है कि वह बीमारियों से लोहा लेते हुए अपने स्वास्थ्य को इतना अच्छा रख सकता है, जितना मानव इतिहास में कभी नहीं रहां, पर क्या यह हो रहा है? आखिर ऐसी क्या बात है कि अपने इरादों से हवा में उड़ने वाला मानव आज अपने द्वारा किए गए प्रदूषण से निपटने के लिए छटपटा रहा है। वह इसके गंभीर खतरों से भली-भांति वाकिफ है, और इससे जूझना भी  चाहता है, पर रोज लगभग हर शहरी व्यक्ति प्रदूषण बढ़ाने का कोई न कोई कार्य कर रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर प्रकृति और मानव के बीच चल रही इस जद्दोजहद से किसका ज्यादा नुकसान है?
          शहरों में खाली प्रकृति को नुकसान पहुंचा कर ही मानव को कमतर नहीं किया है, अपितु उसने जीवन मूल्यों पर भी भारी चोट पहुंचाई है। यह जीवन पर पड़ने वाले आधुनिकता के तमाम दबाबों में वह उन मूल्यों को नहीं संभाल पा रहा है, जो जीवन और संबंधों को बेहतर बनाती है। जिसकी आदत रही है उसे। वह प्रेम पाना चाहता है, पर दे नहीं पाता, वह चाहता है कि सभी उसके लिए सोचें, पर वह किसी के लिए नहीं सोच पाता, वह चाहता है कि लोग उसकी तारीफ करें पर, वह खुद किसी की तारीफ नहीं कर पाता......। मनुष्य होने और जीवन के रस से संबंधित बहुत कुछ छूट रहा है शहरों में, इस छूटने से जो रिक्तता बन रही है उसमें भर रहा है....तनाव, अवसाद और अकेलापन। अगर वैज्ञानिकों की माने तो आज शहर में रहने वाले लोगों पर जीवन का इतना दबाव है कि वे अपने मनुष्य होने को सही तरह से जी नहीं पा रहे हैं। कहते हैं समाज का निर्माण मनुष्य ने एक दूसरे की मदद से बेहतर जीवन जीने के लिए किया था, पर अब आधुनिक समय में बाजार ने व्यक्ति को इतनी सुविधाएं दे दी है कि यदि वह अपने आपके पास धन है तो आपको किसी समाज की जरूरत नहीं पड़ेगी। कभी एक दूसरे से मिलकर रहने वाले लोगों ने शहरों में छोटे-छोटे फ्लैट में रहते हुए अपने दिलों का दायरा भी सिकोड़ लिया है। कई स्तरों पर लोगों को लगने लगा है कि उन्हें किसी समाज की जरूरत नहीं रह गई है। शहरों में एकल परिवार संख्या तेजी से बढ़ रही है। लोग सोचने लगे हैं कि जब धन के माध्यम से सब कुछ बाजार में उपलब्ध है, तो ऐसे में बड़े परिवार में उनकी सुख-सुविधाएं कम हो जाएंगी। आह सेवा से लेकर मेवा खरीदा जा सकता है।
          विज्ञान भी कहता है कि जीवन को बेहतर बनाने में प्रेम, लगाव और ममत्व का सबसे बड़ा हाथ होता है। हाल ही में शोध हुआ, जिसमें बहुत से शहरी लोगों का दिमाग का स्केन किया गया तो मस्तिष्क का बायां हिस्सा भावात्मक-सृजनात्मक सूचनाएं इकट्ठा होती है, शुष्क पाया गया। शहरी तनाव के चलते जीवन अवसाद में घिर चला है। शहर अनजाने ही ऐसे आत्म केंद्रित व्यक्तित्व का विकास कर रहा है, जो सुविधाओं को महत्व देना सीख गया हैपर दिक्कत यह है कि अपनी सारी समझदारी के बावजूद उसे चाहिए अपनापन, प्रेम और मित्रता ही। हां, यह बात दीगर है कि वह भीतर से डरा हुआ है कि यदि उसने संबंधों को ज्यादा सहेजा तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जायेगा और यह डर उसे जीवन से दूर ले जा रहा है।
          आज भी हमें बहुत-से लोग गर्व से चूर किसी को गंवार कहकर डांटने नजर आ जाते हैं। गांव का मतलब गांव में रहने वाला, जिसे शहर में रहने का सलीका ना आता हो। अब अगर हम शहर में रहने वालों के सलीके पर नजर डालें, तो चौक पड़ते हैं हम सभी शहरवासी ध्वनि प्रदूषण से परेशान हैं पर जब हम सड़क पर गाड़ी लेकर निकलते हैं तो हमें जाने कैसी जल्दी होती है कि हम बिना जरूरत के हॉर्न बजाते हुए चलते हैं, जैसे सड़क पर सिर्फ हमें ही जल्दी हो। हम हवा में फैल रहे धुंए को लेकर चिंतित तो दिखते हैं पर हमारी अपनी गाड़ी से उठता धुँआ हमें नजर नहीं आता। हमें सड़कों पर फैली गंदगी तो नजर आती है, पर हम केला, चाकलेट या इसी तरह के कोई खाद्य पदार्थ का सेवन करते हैं तो उससे जन्मे कचरे को सड़क पर फेंकने में कोई संकोच नहीं होता। हमारे पास एक शानदार बहाना होता है कि आखिर यह कचरा डिब्बा नहीं है तो हम क्या करें। हमें लाइनों में सलीके से खड़े होने में शर्मिंदगी होती है, हम बिना लाइन लगाए टिकट प्राप्त करने पर अपार खुशी पाते हैं, हमें अमानवीयता की हद तक प्रैक्टिकल होने में गर्व महसूस होता है। जब पूरी दुनिया पानी को लेकर चिंतित है, तो हम हजारों लीटर पानी से अपनी गाड़ी धोते हैं, और आरो जैसे जल विशुद्धीकरण यंत्र के जरिए लाखों लीटर पानी बर्बाद होता है और उसने पानी को गाड़ी धोने और गमले में पानी डालने से सकारात्मक उपयोग कर ही सकते हैं, पर क्या करने की सोच भी है? ऐसी हजारों बातें हैं जो हमें गवांरों से बदतर बनाती है।

आज जब पूरी दुनिया इस बात के लिए तैयार हो गई है कि दुनिया को शहरों में तब्दील कर देना है, इसलिए कि मानव जीवन और बेहतर हो सके, और आगे बढ़ सके सभ्यताश्रेष्ठता की ओर गतिमान हो सके। तो हमें सोचना होगा कि हमारा शहरीकरण के समुचित राह पर है। क्या हम पूरी मानवता को शहरों में लाने की जिस कवायद में जुटे हैं वह कवायद सही दिशा में चल रही है क्या दुनिया की ज्यादातर आबादी शहरों में होगी तो जीवन सच में बेहतर होगा?  कहां तलाश करेगा मनुष्य सुकून और कहां मिलेगी उसे ठंडी सांस।

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