उसने कहा था – ‘धत्त’ !!


     चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' !!
  (7 जुलाई 1883 – 12 सितंबर 1922)

अल्पायु एवं अल्पलेखन के वावजूद हिंदी साहित्य में अपनी अमर लेखनी के लिए प्रसिद्द रचनाकारों  में गुलेरी जी का स्थान एवं कद काफी उंचा है। गुलेरी जी ने अपने 39 साल के अल्पायु के जीवन में कहानियाँ तो कम लिखीं पर पुरातत्व, इतिहास, वेधशाला या भाषा आदि के बारे में कई महत्वपूर्ण निबंधों की रचना की। 'उसने कहा था' कहानी के अलावा उन्हें 'कछुवा धर्म' या 'पुरानी हिंदी' जैसे महत्वपूर्ण निबंधों के लिए भी याद किया जाता है। गुलेरी जी हिमाचल के कांगड़ा नामक जिले के गुलेर गाँव से संबंधित थे, इसलिए 'गुलेरी' उपनाम से उन्हें भी जाना गया।
          चंद्रधर शर्मा गुलेरी को हिंदी साहित्य में 'उसने कहा था' नामक कहानी से अमर ख्याति मिली। वह अजमेर के मेयो कालेज में संस्कृत अध्यापक रहे। मृत्यु के कुछ समय पूर्व मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद को भी ग्रहण किया। गुलेरी जी पराधीन भारत के उस दौर के रचनाकार थे जब परंपरा-मुक्त आधुनिकता का कोई स्थान समाज में नहीं था। आधुनिकता के लिए अभी भौतिक ढाँचा तैयार हो रहा था। समस्त नवजागरण के बावजूद हिंदी प्रदेश में सुधारवादी किस्म की आधुनिकता का विकास बहुत धीमी गति से ही हो रहा था। इसीलिए गुलेरी जी भी विचारों से कुछ तो आधुनिक और अधिकांशतः परंपरावादी ही रहे।
          चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ऐसे अकेले कथा लेखक थे जिन्होंने मात्र तीन कहानियां लिखकर कथा साहित्य को नई दिशा और आयाम प्रदान किये। ‘सुखमय जीवन’ व ‘बुद्धू का काँटा’ और ‘उसने कहा था’ के अतिरिक्त नए शोधकार्यों के प्रकाश में आने के फलस्वरूप वे एक उत्कृष्ट कोटि के निबंध लेखक, प्रखर समा लोचक, उद्भट भाषाशास्त्री, निर्भीक पत्रकार एवं सफल कवि सिद्ध होते हैं।
          निबंधकार के रूप में भी गुलेरी जी बडे प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने सौ से अधिक निबंध लिखे हैं। सन् 1903 ई. में जयपुर से जैन वैद्य के माध्यम से समालोचक पत्र प्रकाशित होना शुरु हुआ था जिसके वे संपादक रहे । इन्होंने पूरे मनोयोग से समालोचक में अपने निबंध और टिप्पणियाँ देकर जीवंत बनाए रखा। इनके निबंधों के अधिकतर विषय- इतिहास, दर्शन, धर्म, मनोविज्ञान और पुरातत्व संबंधी ही हैं। ‘शैशुनाक की मूर्तियाँ’ ‘देवकुल’ ‘पुरानी हिंदी’, ‘संगीत’, ‘कच्छुआ धर्म’, ‘आँख’, ‘मोरेसि मोहिं कुठाऊँ’ और ‘सोहम्’ जैसे निबंधों पर उनकी विद्वता की अमिट छाप मौजूद है।
          गुलेरी जी कवि भी थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं। ‘एशिया की विजय दशमी’, भारत की जय’, ‘वेनॉक बर्न’आहिताग्नि’, झुकी कमान’, स्वागत’, रवि’, ईश्वर से प्रार्थना’ और ‘सुनीति’ इनकी कतिपय श्रेष्ठ कविताएँ हैं। ये रचनाएँ गुलेरी विषयक संपादित गंथों में संकलित हैं। पत्र-लेखक के रूप में भी गुलेरी जी की सिद्धहस्तता का परिचय मिलता है।
          ‘उसने कहा था’ कहानी आज भी उतनी ही नई तथा जिज्ञासापूर्ण है जितनी अपने समय में थी। सन् 1915 में यह कहानी सरस्वती पत्रिका में छपी थी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कहानी की प्रशंसा करते हुए अपने इतिहास की पुस्तक में लिखा है- ‘इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम यथार्थता के भीतर, भावुकता का चरमोत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना उसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती है पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरुप झाँक रहा है- केवल झाँक रहा है। निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा । ….. इसकी घटनाएं ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।’
          कथाकार गुलेरी की कहानियों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि वे युग से आगे बढ़कर अपनी कहानियों में रोमांस और सेक्स को ले आए। उस आदर्शवादी युग में इस प्रकार का वर्णन समाज-ग्राह्य नहीं माना जा सकता था। परंतु वे सैक्स के नाम पर झिझकने वाले पंडितों में से नहीं थे। 
          उन्होंने यथार्थ जीवन जिया और उसका खुलकर वर्णन भी किय़ा। ‘सुखमय जीवन’ कहानी का यह अंश पठनीय है – चपलता कहिए, मैंने दौड़कर कमला का हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से गिर पड़ी। मैं उसके कान में कहने लगा। ‘बुद्धू का काँटा’ कहानी में भी एक प्रसंग आता है इसी तरह- ‘रघुनाथ ने एक हाथ उसकी कमर पर डालकर उसे अपनी ओर खींचना चाहा। मालूम पड़ा कि नदी के किनारे का किला, नींव से गल जाने से धीरे-धीरे धँस रहा है। भागवंती का बलवान् शरीर निस्सार होकर रघुनाथ के कंधे पर झूल गया।’ अतएव यह कहना प्रासंगिक ही है कि जब कहानी घुटनों के बल सरक रही थी तो गुलरी जी की कहानियाँ पाँव के बल चलकर चौकड़ी भरने में समर्थ थीं। उन्होंने अनुपम कलापूर्ण कहानियाँ लिखकर युग को प्रेरित और गतिमान किया है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी और हिंदी कथा साहित्य के मसीहा थे।
          उनके समकालीन रहे राय कृष्णदास ने अपने संस्मरण लिखा है कि छोटे भाई की पत्नी का देहांत के बाद  दाह संस्कार के पश्चात तेज ज्वर के कारण गंगा स्नान नहीं करना चाह रहे थे। इस पर उन्हीं के रिश्तेदार पंडित नित्यानंद ने उन्हें ललकारा - तेरी भाभी मर गई हैं और तू स्नान नहीं करता! रायकृष्णदास के शब्दों में - 'गुलेरी जी ने कहा, ले चांडाल, एक ब्राह्मण की हत्या करनी है तो ले। फिर वे गंगा में कूद पड़े। परिणामस्वरूप वह ज्वर से उबार न सके।'  धार्मिक कर्मकांडों में फंसकर 12 सितंबर 1922 को उनका 109 डिग्री बुखार कारण गुलेरी जी जैसा प्रतिभाशाली रचनाकार का देहांत हो गया।

Comments

  1. Very very admirable post.... भइया को बधाई.. आपकी पोस्ट का बेसब्री से इंतजार रहता है..

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