संत कबीर !!


कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर जारे आपना चले हमारे साथ
                        कबीर
जन्मकाल से ही पेक्षा का प्रहार सहने वाले कबीर जीवन आत्म-विश्वास का अलख जगाते रहे। तथाकथित निम्न समाज में घेरे में पलने वाले कबीर का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। वह भगवान के साकार-सगुण रूप में विश्वास नहीं रखते थे, बल्कि उसे निर्गुण-निराकार बतलाते थे।
          कबीर अपने बारे में सदा मौन रहने के आदी थे, अतः निश्चित रूप से बतलाने ने में बड़ी कठिनाई होती है कि इनका जन्म कब हुआ था, कहां हुआ था, नके माता-पिता का क्या नाम था आदि। यह बातें जनश्रुतियों के आधार पर ही बतलायी जा सकती है।
          इनका जन्म 1398 ईस्वी में माना जाता है इनका जन्म स्थान काशी या बस्ती जिला का मगहर था, यह विवाद का विषय है। कबीर की पंक्तियाँ हैं- तू बम्हन में काशी का जुलहा, चीन्ही न मोर गिनायेतथा पहिले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आई अर्थात तुम ब्राह्मण हो और मैं काशी का जुलाहा हूँ तथा पहले मगर देखा और तब काशी में आ बसा। यह पंक्तियां विद्वानों के शास्त्रार्थ युद्ध को भड़काती है। कबीर जैसे महात्माओं की जन्म भूमि बनने के लिए भारत का चप्पा-चप्पा लालायीत रहे, यह स्वभाविक है।
          कहा जाता है कि स्वामी रामानंद अनजाने में ही एक विधवा ब्राह्मणी को पुत्रवती भव का आशीर्वाद दिया। वृथा जाहिं देवऋषि वाणीके अनुसार वैसा ही हुआ। ब्राह्मणी समाज भय से उस दूधमुहे बालक को कहीं फेंक आयी। उस भोले बालक को एक जुलाहा-दंपत्ति उठाकर ले गए और उसका पालन पोषण करने लगे। वही कबीर हुए।
कबीर को कपड़े बुनकर जीवनयापन का कार्य विरासत में मिला, किंतु है इसी में लिप्त नहीं रहे वे रमता जोगी बनकर डगर-डगर गली-गली घूमते रहे और अनुभवों से अपनी झोली भरते रहें।
मैं कहता हूँ आँखिन देखी
तू कहता कागद की लेखी
            कबीर ने देखा कि समाज में अनेकानेक कुरीतियां घर कर गई थी। सारा समाज पाखंड और बाह्यआडम्बरों का दास बन बैठा था। समाज में ऊंच-नीच, छूत-अछूत के बीच की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही थी। पर उपदेश कुशल बहुतेरे लोगों की संख्या दिन-दुगनी रात चौगुनी होती चली जा रही थी। कहना कुछ और करना कुछ।
           कबीर के पास धनबल था, ना शरीरबलपर चरित्रबल आवश्यक था। वह निर्भीक भाव से लोगों को उनके अपने दोष दिखने और सल उक्तियों से उनपर करारी चोट करने लगे। कबीर का ज्ञान वास्तविक एवं व्यवहारिकता पर आधारित था। वह विशेष शिक्षित नहीं थे, परंतु अनुभव का अमोघास्त्र लेकर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, पाखंडी पंडितों और मौलवियों पर व्यंग प्रहार किया।
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार
ताते यह चक्की भली पीस खा संसार।।
कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लई चुना
ता चढ़ी मुल्ला बांग है, क्या बहिरा हुआ खुदा।।
          “पंडित जी, आप तो विचित्र बात करते हैं यदि पत्थर की मूर्तियों की पूजा करने से ईश्वर मिलता है तो मैं पत्थरों के ढेर पहाड़ को ही क्यों न पूजूँ। इससे तो कहीं वह चक्की अच्छी, जिससे पीस कर संसार रोटी खाता है
और, मौलवी साहब, आप ही खूब फरमाते हैं। कंकडों और पत्थरों की आलीशान इमारत बना लिया और उस पर से इतना हल्ला करने लगे जैसे खुदा कम सुनता हो, हरा हो गया हो
              इन साखियों में कबीर के व्यंगवाण वालों की वर्षा किस वर्ग विशेष पर है इसे हम भली भांति समझते हैं। कबीर इसे अपने अन्य पंक्तियां द्वारा विशेष रुप से स्पष्ट करते हैं--
मन न रंगाए रंगाए जोगी कपरा
आसन मारि मंदिर में बैठे
नाम छांडी पूज लगे पथरा।
कनवा फड़ाय जोगी जटवा बधवलें
दाढ़ी बढ़ाए जोगी होई गेले बकरा
जंगल जाए जोगी धुनिया रमवलें
काम जराय जोगी बनि गैलें हिंजरा
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगवलें
गीता बाँचि के होई गैलें लबरा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो
जम दरवजवा  बाँधल जैहें पकरा
            “जटा बढ़ा ली, गेरुआ वस्त्र पहनकर बेचारी पत्नी और पुत्र को छोड़कर भाग गए। गृहस्थी का बोझ संभाल नहीं पाते, जीवन संग्राम में जूझ नहीं पाते और ईश्वर प्राप्ति का ढोंग रचाकर संसार की जिम्मेदारियों से भाग खड़े हुए
भगवान की प्राप्ति के लिए बाह्य विधानों की आवश्यकता नहीं है। जिसका चित्त निर्मल है, आत्मा शुद्ध है, उसके पीछे तो भगवान स्वयं दीवाने बने रहते हैं, ईश्वर संसार की अनगिनत भाषाओं को नहीं जानते हैं जानते हैं; जानते हैं एक भाषा, केवल एक भाषा और वह भाषा है प्रेम की-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई अच्छर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
              पंडित कहते हैं कि भगवान मंदिर में रहते हैं; मौलवी कहते हैं, मस्जिद में। ईसाई धर्म मानने वाले कहेंगे कि वे तो गिरजे में रहते हैं। ईश्वर की काबा-कैलाश या पैराडाइज में ढूंढना निरी मूर्खता है। बाबा, मन की आंखें खोल। जरा अपनी आंखों से अज्ञानता की पट्टी हटा। सारी बातें समझ आ जायेंगीवे तो घट घट के वासी हैं--
         मोको कहां ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में
               वे तो  हिरण्यकश्यपु है जो ईश्वर का निवास बैकुंठ में केंद्रित मानते हैं। वस्तुतः ईश्वर के अस्तित्व ज्ञान के लिए प्रहलाद की दृष्टि चाहिए। कबीर कहते हैं-
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल
           कबीर एक प्रवीण प्रश्नकर्ता की भांति प्रश्न करते हैं- भाई! तुम जानते हो, इस शरीर की क्या दुर्गति होती है? जिस शरीर को इतना धोया-मांजा जाता है, इतना सजाया-सँवारा जाता है, वह शरीर तो ऐसा हो जाता है कि उसके पास तक कोई नहीं जाना चाहता। उसकी दुर्दशा देखो तो जरा-
चार गज चरगजी मंगाया चढ़ा काठ की घोरी
चारों कोने आग लगाया फूंक दिया जस होरी
हाड़ जरे जस लाकड़ी के जरे जस घासा
सोना ऐसी काया जरि गई कोउ न आया पासा
          अतः हमें क्या करना है अच्छी तरह विचार लो। इस काया और जीवन को तुम अच्छे कार्य में लगाओ, चिंतन-मनन में बिताओ सोने-चांदी की बात कौन करें, शरीर तो नाचीज का भी नहीं जिस का कुछ उपयोग हो सके। अतः इस नाशवान शरीर को यदि तुमने सत्पथ की ओर बढ़ाया, लोक-कल्याण में लगा दिया तो समझो इस शरीर की सार्थकता सिद्ध हो गई। कौड़ियों की चीज करोड़ों के मोल बिक गई। लोग आते हैं पचरंग चोला पहनकर। शाबाशी है कबीर जैसों की जो सब-कुछ लुटा कर चल देते हैं। यह तो सामान्य व्यवहारिक बुद्धि का तकाजा है कि जो चीज जिस हालात में मिले, उसी हालत में उसे लौटा दिया जाएकिंतु संसार की बेईमानी तो देखिए कि आते हैं पचरंग पहनकर, बिल्कुल साफ-शफ्फाक; किंतु लौटाने के समय उसे गंदा कर जस-तस छोड़ जाते हैं। अतः शरीर रूपी चोले को जरा ठीक से ओढें-
दास कबीर जतन सै ओढ़ी
जस के तस धरी दीनी चदरिया
            यह तो इतना सरल कार्य है कि ऐसा करने से ही संसार में हम पूज्य उठेंगे। किंतु इस सहज-सरल को भी कोई नहीं जानता
सहज सहज सब कोई कहे
      सहज न चिन्हे कोई
           ऐसे पुरुषों की कुल कृति अनुचरी हो जाती है। हम ऐसा कार्य करें कि संसार को प्रकाश मिले तभी लोग आंसू बहा कर हमें याद करेंगें --
जब आया संसार में, जग हाँसा, हम रोए
ऐसी करनी करि चलो, हम हांसे, जग रोए।।
       धन्य है कबीर जो हमें ऐसा ज्ञानपथ दिखलाते हैं फिर भी, हम भटकते चले जा रहे हैं भूल-भुलैया में।
           कबीर की रचनाओं का संग्रह बीजक के नाम से विख्यात है। बीजक शब्द का अर्थ सर्वत्र कबीर की बानियों में समाया हुआ है। इस बीजक के तीन स्रोत हैं (1) साखी (2) बद (3) रमैनी। साखी में कबीर अपने पूर्व के महात्माओं को साक्षी दे रहे हैं। साखी आँखी ज्ञान कीशब्द में पद है। रमैनी दोहे-चौपाइयों की निश्चित रचना है।
              कबीर भाव अनूठो चाहिए, भाषा कैसी हो के विश्वासी हैं। जैसे मदमस्त हाथी महीप तक के अंकुश को समक्ष वैसा ही बना रहता है, वही स्थिति है भाषा के साथ के कबीर की। इसलिए वे भाषा के डिक्टेटर माने जाते हैं। इन पंक्तियों में कबीर की भाषा निरंकुशता सामने आती है-
दरियाव की लहर दरियाव है जी
          दरियाव और लहर में भिन्न कोय
उठे तो नीर है, बैठे तो नीर है  
          कहो जो दूसरा किस तरह होयम
उसी का केरके नाम लहर धरा
         लहर के कहे क्या नीर खोयम
जल के फेर जब जल परब्रह्म में
         ज्ञान कर देख माल गोयम।
             फिर भी कबीर की भाषा ऐसी नहीं जिसे हम गवाँरु कह सकें। इस निरंकुशता में भी एक ऐसा संयम है जो हिंदी के अन्य कवियों में दुर्लभ है।

अनिश्चित जन्म, धर्म-समन्वयी विचार और मिली-जुली भाषा ही वह कारण है जिसके चलते सन 1518 ई. में कबीर का निधन हुआ तो हिन्दुओं और मुसलमानों में झगड़ा शुरु हो गया। हिंदू कहते थे कि कबीर हिंदू हैं, उनकी अंत्येष्टि-क्रिया हिंदू रीति-रिवाज से होनी चाहिए; मुसलमान कहते थे कबीर मुसलमान है, उन्हें मुसलमानों की तरह दफनाना चाहिए।
वस्तुतः कबीर जैसे स्पष्ट-वक्ता निष्णात भक्त और विश्वबंधुत्व की भावना से ओतप्रोत महात्मा के निधन संस्कार के समय जातियों में विवाद न छिड़ता तो वही आश्चर्यजनक होता। वस्तुतः राष्ट्रभाषा के लिए से बढ़कर गौरव का विषय और क्या हो सकता है कि उसके इस कवि की वाणी विश्व कल्याण की सुधावाणी बन गयी


Comments