मधुर क्षण महाकवि जानकीवल्लभ शास्त्री के चरणों में !!

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री
(5फरवरी 1916 - 8अप्रैल 2011)

28 मार्च 1992 । बिहार के प्रसिद्द प्रबंधन महाविद्यालय ललित नारायण मिश्र इंस्टिट्यूट में दाखिला का परीक्षा केंद्र मुजफ्फरपुर में पडा था। होश सँभालने के उपरांत, पहली बार अपनी जन्मस्थली पर जाने का मौका मिला था। एक उत्सुक्ता थी जन्मभूमि की मिट्टी को स्पर्श करने की। अपने मोटरसाईकिल से चल पडा मुजफ्फरपुर की तरफ। अभी वैशाली जिले के गोरौल ब्लोक के कार्यालय के सामने से गुजर ही रहा था कि गोलियां चलने की आवाज सुनायी पड़ी, तेजी से उस स्थल से निकलता चला गया और मुजफ्फरपुर पहुँचने के पहले ही सुचना मिल चुकी थी कि हेमंत शाही(कांग्रेस का दबंग नेता) की हत्या गोरौल ब्लोक में गोली मार कर कर दी गयी, सारे घटनाक्रम आँखों के सामने नाचने लगी। 
            सबसे पहले अपने परीक्षा केंद्र को खोजने निकला तो पता चला कि मेरे परीक्षा का केंद्र चतुर्भुज स्थान के निकट है। चतुर्भुज स्थान पहुँचने पर पता चला कि यह मुजफ्फरपुर का सबसे बदनाम इलाका है जहाँ रात के अँधेरे में ही नहीं, बल्कि दिन के उजाले में भी देह का व्यापार होता है। वहां चतुर्भुज अर्थात चार भुजाओं वाले भगवान विष्णु का प्रसिद्द मंदिर है, लेकिन वहां का पता पूछते ही लोगों की निगाहें शंका सी भर गयी। तभी दैवीय कृपा से मेरी नजर एक शिलापट्ट पर पड़ी, जिस पर गली का नाम अंकित था जानकीवल्लभ शास्त्री पथ। पता चला कि शास्त्री जी का मकान बस 50 कदम पर ही है। उन्ही के नाम पर इस गली का नाम भी है और अंतिम मकान है। मै उस अंतिम मकान तक पहुंचा जिस पर नाम अंकित था निराला निकेतनजो उन्होंने महाप्राण निराला के प्रति अपने प्रेम और सम्मान में रखा था। 
              शास्त्री जी बहार ही बरामदे में एक पलंग पर सफ़ेद धोती और सफ़ेद गंजी पहने अधलेते मुद्रा में तकिये पर कोहनी टिकाये बैठे हुए थे। पलंग पर पुस्तकों का अम्बार लगा हुआ था और एक व्यक्ति उनसे वार्तालाप कर रहा था। कृतग्य भाव से उनके चरणो को छू कर प्रणाम किया और अपना संक्षिप्त सा परिचय दिया। बड़े प्रेम से उन्होंने आशीर्वाद दिया और बैठने के लिए बोलते हुए मेरा वहां आने का प्रयोजन पूछा उन्होंने आवाज देकर किसी को बुलाया और आदेश भाव में कहा देखो, घर में कुछ मिठाई विठाई है? भीतर भेजे गए व्यक्ति को खाली हाँथ आते देख महाकवि ने उसे सौ रूपये का नोट थमाते हुए आदेश दिया दौड़ कर सफ़ेद रसगुल्ला और समोसे लेकर आओ। पटना से बच्चा आया है, भूख लग गयी होगी। उनके इस आतिथ्य सत्कार से मैं अभिभूत हो गया था। इतने में उनके दो पालतू कुत्ते आकर पलंग के पास खड़े हो गए। उन्होंने दोनों को बिस्कुट खिलाते हुए कहा – बड़े वफादार हैं। कभी मेरा साथ नहीं छोड़ते। इन दो वाक्यों में उन्होंने बहुत कुछ सिखा दिया था मुझे।
               बिहार के गया जिले में शेरघाटी के निकट मैगरा नमक गाँव में 5 फ़रवरी 1916 में उनका जन्म हुआ था उनके पिता पंडित रामानुग्रह शर्मा संस्कृत के आचार्य थे जो घर पर ही छोटी सी पाठशाला चलते थे। चार वर्ष की अवस्था में ही माँ का देहांत हो गया था। पिता के सानिध्य में ही घर पर ही प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त किया । पिता उनके साथ कठोर शिक्षक जैसा ही व्यवहार करते थे और बहुत पिटाई करते थे। शिक्षार्जन के क्रम में डाल्टेनगंज, गया और बनारस तक गए। बनारस में उन्हें महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी का सानिध्य प्राप्त हुआ और जयशंकर प्रसाद जी से भी निकटता हुई। सन 1938 में रायगढ़ राजा के राजकवि नियुक्त हुए परन्तु राजदरबार का ऐश्वर्य उन्हें बांधकर नहीं रख सका और अपने गाँव मैगारा लौट आये, लेकिन वहां उनका सम्मान नहीं हुआ। इतने राजसी जीवन को छोड़ने के कारण उनके पिता उन पर बहुत क्रोधित हुए और गाँव वालों ने भी व्यंग वांनों की बौछार लगा दी तब कवि का ह्रदय चूर-चूर हो गया और फिर कभी न लौटने के लिए निकल पड़े। उनके भीतर की पीड़ा कविता के रूप में निकल पड़ी – “मैं मथता सिन्धु रहा मन का, / तुम कितनी बूंदें बिलों सकोगे? / कंटक- वृन्तों पर खिले हुए को, / कितनी सुइयां चुभो सकोगे? / मगह के गाँव मैगरा से भागे तो गंगा के उत्तर में मुजफ्फरपुर आ पहुंचे। किसी तरह संस्कृत कौलेज पहुंचे जहाँ वह धाराप्रवाह संस्कृत बोलते रहे, बिना एक शब्द भी हिंदी के प्रयोग के। लोग उनकी इस प्रतिभा से काफी प्रभावीत हुए और उन्हें अपने पास रख लिया।
                इसी बीच उन्होंने मुझे अपना पूरा घर घुमाया जो घर से ज्यादा चिड़ियाघर और अजायबघर लग रहा था। करीब दो दर्जन गाय, चार कुत्ते और कई बिल्लियाँ और तोते। उन्होंने बताया कि उनकी गायों को देखने के लिए पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी जी उनके घर पधारे थे। उन्होंने बातों के क्रम में बताया कि वह गाय के दूध को बेचते नहीं हैं बल्कि अगल-बगल के लोग यूँ ही ले जाते हैं। गायों के मरने पर कभी फेकवाया नहीं बल्कि सबकी समाधी बनवा दी। उन्होंने हँसते हुए कहा कि मैं आपलोगों की तरह सामान्य व्यक्ति नहीं हूँ बल्कि मैं आपलोगों से भिन्न हूँ, कह सकते हो तीन चौथाई पागल।
                   मैं स्तब्ध चुपचाप उन्हें सुनता रहा। महाकवि ने ठीक ही कहा है कि वह हम सबों से भिन्न हैं। कहाँ वह हिमगिरी के उत्तुंग शिखर, अमल-धवल और मानवता के ललाट चन्दन और कहाँ हम अति सामान्य सांसारिक लोग। हम उनकी ऊँचाइयों और गहराईयों की थाह कैसे ले पाएंगे। महाकवि ने लिखा भी है – तुम खोजोगे, तुम्हे खोजते यदि खो जाऊं?/ तुम विहंसोगे, तुम्हे देखकर यदि रो जाऊं? 
उन्होंने बताया कि प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के सामने भी धाराप्रवाह संस्कृत में भाषण दिया था और उसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि कॉलेज के संस्थापकों ने मुझे स्थाई प्रोफेसर बना दिया।
                     महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी के पावन सानिध्य में बैठे-बैठे वक्त कैसे बीत गया मुझे पता ही नहीं चला पर समय साक्षी था किस विराट व्यक्तित्व के सामने मैं बैठा हुआ था मैं।

गाथा’, शिप्रा’, तीर-तरंग’, मेघगीत’, अवंतिका’, चिन्ताधारा’, अपर्णा’, जयी’, पाषाणी’, राका’, राधा जैसे काव्यग्रन्थ सहित कालिदास जैसे उपन्यास के प्रणेता शास्त्रीजी ने अचानक मुझसे कहा- अब तुम जाकर कुछ पढाई कर लो कल की परीक्षा में सफलता के लिए भी और जीवन में कभी मौका मिले तो हिंदी साहित्य को किसी भी रूप में अपना अवश्य योगदान देना। उन्हें क्या पता था कि इस तुच्छ जीवन की सबसे श्रेष्ठ परीक्षा-परिणाम का दूसरा सबसे कीमती पदक उनके दर्शन मात्र से मुझे मिल चुका था। आशीर्वाद स्वरुप उन्होंने मुझे अपनी हस्ताक्षरयुक्त अवंतिका की एक प्रति मुझे प्रसाद के रूप में दिया।

स्वाभिमान और तेज से दीप्त हिंदी काव्य का यह सिंह-पुरुष जो कभी शिखरस्त सत्ताशाहियों पर गरजता था –ऊपर-ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं,/ ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं। जनता धरती पर बैठी है, नभ में मंच खड़ा है, / जो जितना है दूर माहि से, उतना वही बड़ा है।  
सादर विनम्र नमन       




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