विकसित होते भारत के अंतर्विरोध:- ढुलमुल बुनियादी शिक्षा नीति !!...(क्रम संख्या 02)

गरीबी की रेखा एक ऐसी रेखा है जो गरीब के ऊपर से और अमीर के नीचे से निकलती है।' यह परिभाषा किसी भी मायने में सैद्धांतिक न हो परन्तु व्यावहारिक और जमीनी परिभाषा इससे अलग नहीं हो सकती है। वास्तव में गरीबी की रेखा के जरिये राज्य ऐसे लोगों के चयन की औपचारिकता पूरी करता है जो इससे ज्यादा अभाव में जी रहे हैं कि उन्हें रोज खाना नहीं मिलता है, रोजगार का मुद्दा तो सट्टे जैसा है, नाम मात्र को छप्पर मौजूद है या नहीं है, कपड़ों के नाम पर कुछ चीथड़े वे लपेटे रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें विकास की प्रक्रिया में घोषित रूप से सबसे बड़ी बाधा माना जाने लगा है। हालांकि विकास का यह एक अहम् मापदण्ड भी है कि लोगों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला जाये इस दुविधा की स्थिति में लगातार संसाधन झोंके जाते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब अपने संविधान की परिकल्पना की गयी थी तब इन्ही सब मुद्दों को ध्यान में रखकर कतिपय संविधान निर्माताओं ने लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की थी जिसका परिणाम है कि आज हमारे वित्तीय ढांचे से सबसे ज्यादा राशी का भुगतान कल्याणकारी योजनाओं के लिए निकाल दिया जाता है उसके वावजूद 70 वर्षों में देश में इनकी स्थिति में कोई सुधर नहीं हो पा रहा है।

शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब देश के किसी न किसी इलाके से गरीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, कर्ज जैसी तमाम आर्थिक तथा अन्यान्य सामाजिक दुश्वारियों से परेशान लोगों के आत्महत्या करने की खबरें न आती हों। कल रात पुण्य प्रसून(आज तक) के विश्लेषण के अनुसार सरकारी आंकड़ों (NBRC) के अनुसार प्रत्येक घंटे में 17 विद्यार्थी रोज आत्महत्या कर ले रहे हैं। 2014 से 2017 के बीच 26,478  छात्रों ने बेरोजगारी अथवा अच्छी नौकरी नहीं मिलने के कारण आत्महत्या कर लिए हैं।

आजादी के बाद शिक्षा का जो ढांचा चुना और नीतिगत रास्ता चुना उस समय भी निचले स्तर पर कोई बड़ी बहस नहीं हुई। शिक्षा के विकास का नेहरु मॉडल पूरी तरह देश में असफल रहा, देश के हर कोने में और प्रत्येक समुदाय के पास शिक्षा पहुँचाने में यह मॉडल असफल रहा।“सबको शिक्षा” का नारा महज नारा ही बना रहा। सभी बच्चे स्कूल में हों यह सपना ही रह गया। बच्चों के स्कूल न जाने का अर्थ है उन्हें मानवाधिकार से वंचित रखना।
स्कूली शिक्षा व्यवस्था के स्वरुप पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि भारत सरकार की प्राथमिकताओं में स्कूली शिक्षा कभी नहीं रही। आज भी नहीं है। आज भी स्कूली शिक्षा का मात्र 10% नेटवर्क निजी क्षेत्र के दायरे में आता है 90% क्षेत्र सरकारी स्कूलों के दायरे में आता है।

सवाल यह है हम लोकतंत्र के लिए “नागरिक” चाहते हैं या “उपभोक्ता” ? यदि “उपभोक्ता” के जरिए लोकतंत्र का निर्माण करना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी है। यदि नागरिक के जरिए लोकतंत्र बनाना चाहते हैं तो लोकतंत्र की प्रकृति अलग होगी। “उपभोक्ता” और “नागरिक” में गहरा अन्तर्विरोध है। “उपभोक्ता” के “अन्य” के प्रति कोई सामाजिक सरोकार नहीं होते, वह सिर्फ अपने बारे में सोचता है, निहित स्वार्थों को सामाजिकता कहता है। इसके विपरीत “नागरिक” के निजी नहीं सामाजिक स्वार्थ होते हैं, सामाजिक लक्ष्य होते हैं, उसे अपने से ज्यादा “अन्य” की चिन्ता होती है। लोकतंत्र के विकास के लिए हमें “उपभोक्ता” नहीं “नागरिक” चाहिए। लोकतंत्र कभी भी उपभोक्ता के जरिए समृद्ध नहीं होता, नागरिक और नागरिक-चेतना के जरिए समृद्ध होता है।

वर्तमान सरकार की  पहली आवश्यकता यह होनी चाहिए कि समाज और सरकार राम मंदिर के चिंतन को छोड़कर बेरोजगार युवाओं के भविष्य के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सार्थक चिंतन करे है। क्योंकि युवओं के भविष्य के साथ इस देश का भविष्य भी जुड़ा है जब सबसे ज्यादा आत्महत्याएं खेती, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार के कारणों से हो रही हों, तब हमें चेत जाना चाहिए है। हमें मान लेना चाहिए कि कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ी  है, क्योंकि ये चार क्षेत्र उम्मीद और संरक्षण की नींव पर खड़े होते है।

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