दो महान विभूति- 'भारत रत्न' महामना मालवीय एवं अटल बिहारी

मध्यम मार्ग के शिखर पुरुष – अटल बिहारी बाजपेयी

अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता में ईश्वर से प्रार्थना की है कि वह उन्हें इतनी ऊंचाई पर न पहुंचाए जिससे कि वे सबसे दूर हो जाएं। प्रार्थना के विपरीत उन्हें एक सर्वस्वीकार्य राष्ट्र पुरुष जैसी ऊंचाई मिली। उनका यह सोच निराधार साबित हुई और वह इतनी ऊंचाई पाकर भी कहीं भारतीय जनमानस से दूर नहीं हुए। आधी शताब्दी से भी अधिक के सार्वजनिक जीवन के किसी कालखंड में वह भारतीय लोकजीवन से अलग नहीं हुए। जनमानस को समझने का शायद उन्हें कभी अलग से प्रयास नहीं करना पड़ा। उनकी यही अद्भुत क्षमता उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारतीय समाज से उनका संवाद सहज और स्वतः स्फूर्त था। ऐसा उनका निजी पृष्ठभूमि के कारण भी था। जिसने बाद में उनके सार्वजनिक जीवन में भी योगदान दिया। सांगठनिक और राजनीतिक कार्यों से लगातार भ्रमण करते रहने में उनका बड़ा समय निकला। कभी पदयात्रा, कभी साइकिल यात्रा तो कभी मोटर साइकिल यात्रा और फिर दूसरे साधन से जुड़ते दिन बदलते रहे, स्थान बदलते रहे, मौसम और वर्ष बीते। यहां तक कि दशक बीते। लेकिन दौरों, जनसम्पर्क और जनसभाओं का क्रम चलता रहा। ‘चरैवेति-चरैवेति ‘ की इसी जीवनचर्या ने उन्हें भारतीय जनमानस से एकाकार कर दिया। यह कहना चाहिए कि उन्हें भारतीय समाज को अलग से समझने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह उनके सोच व स्वाभाव में समाहित हो गया।
उनके द्वारा पुष्पित-पल्लवित पौधा अब विशाल बट-वृक्ष बन गया है। यह स्वाभाविक है कि संघर्ष की लंबी अग्नि परीक्षा को भुला दिया जाए। आज के अटल जी इसी संघर्ष की देन हैं। यह भी इनकी अद्वितीय पहचान है।
भारतीय समाज के मौलिक संस्कार को अटल जी ने बहुत सटीक तरीके से समझा और उसे अपने जीवन में उतारा भी। राजनीति में हिंसक टकरावों के दुर्भाग्यपूर्ण दौर भी आए। लेकिन भारतीय समाज की समन्वयवादी शांति प्रिय सोच पर अटल जी की आधारभूत आस्था हमेशा अटल ही रही। उन्होंने अराजकता के ऐसे सभी निराशाजनक प्रसंगों में दृढ़ता से कहा कि भारतीय समाज इस हिंसक, विभाजक राजनीति को लंबे समय तक स्वीकार नहीं करेगा। अटल जी मन से मानते रहे कि राजनीति से विग्रह, विवाद और विभाजन को अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन अंततः समन्वय, संवाद और सहमति से समाधान संभव होगा।
इस महापुरुष, मनीषी, महानायक, महादेशभक्त अटल बिहारी बाजपेयी को मेरा शत-शत नमन ।
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पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय

असाधारण महापुरुष पंडित महा मना मदनमोहन मालवीय का जन्म भारत के उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रयाग में    २५ दिसम्बर सन १८६१ को एक साधारण परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था । चूँकि ये लोग मालवा के मूल निवासी थे अतः मालवीय कहलाए ।
        अध्यापकी के दौरान ही मालवीयजी के हृदय में समाज-सेवा की लालसा जग गई । समाज-सेवा में लगे होने के साथ ही साथ १८८५ में ये कांग्रेस में शामिल हो गए । इनके जुझारुपन व्यक्तित्व और जोरदार भाषण से लोग प्रभावित होने लगे । समाज-सेवा और राजनीति के साथ ही साथ मालवीयजी हिन्दुस्तान पत्र का संपादन भी करने लगे । बाद में मालवीयजी ने प्रयाग से ही अभ्युदय नामक एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला । पत्रकारिता के प्रभाव और महत्व को समझते हुए मालवीयजी ने अपने कुछ सहयोगियों की सहायता से १९०९ में एक अंग्रेजी दैनिक-पत्र लीडर भी निकालना शुरु किया । इसी दौरान इन्होंने एल.एल.बी. भी कर ली और वकालत भी शुरु कर दी । वकालत के क्षेत्र में मालवीयजी की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फाँसी से बचा लेने की थी ।
    राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए मालवीयजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की । विश्वविद्यालय के निर्माण हेतु धन जुटाने के लिए वे भारत के कोने-कोने में गए । अपने आप को भारत का भिखारी माननेवाले इस महर्षि की मेहनत रंग लाई और ४ फरवरी १९१६ को वसंतपंचमी के दिन वाइसराय लार्ड हार्डिंग्ज के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई । आज भी यह विश्वविद्यालय शिक्षा का एक विख्यात केंद्र है और तभी से पूरे विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैला रहा है ।
    मालवीयजी देशप्रेम, सच्चाई और त्याग की प्रतिमूर्ति थे । एक मनीषी थे और थे माँ भारती के एक सच्चे सपूत । इस मनीषी को सदा दूसरों की चिंता सताती थी अतः दूसरों के विकास के लिए, लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए ये सदा तत्पर रहते थे । इनका हृदय बड़ा कोमल और स्वच्छ था । दूसरे का कष्ट इनको व्यथित कर देता था । सन १९३४ में दरभंगा में भूकम्प पीड़ितों की सेवा और सहायता इन्होंने जी-जान से की थी ।
    कई लोग मदनमोहन की व्याख्या करते हुए कहते थे कि जिसे न मद हो न मोह, वह है मदनमोहन । इस मनीषी की महानता को नमन करते हुए महा, मना शब्द भी इनके नाम के आगे जुड़कर अपने आप के भाग्यशाली समझने लगे । गाँधीजी इन्हें नररत्न कहते थे और अपने को इनका पुजारी । माँ भारती का यह सच्चा सेवक और ज्ञान, सच्चाई का सूर्य १२ नवम्बर १९४६ को सदा के लिए अस्त हो गया ।
    इस महापुरुष, मनीषी, मंगलघट, महाधिवक्ता, महानायक, महासेवी, महादेशभक्त, महामहिम, महा मना मदनमोहन मालवीय को मेरा शत-शत नमन ।

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