भक्ति के लिए जरूरी है भाव !!


एक आदमी शाम को ऑफिस से घर लौटा तो बहुत थका हुआ था। सोफे पर लेटते ही उसे नींद आ गई। उसकी पत्नी जब पानी लेकर आई तो देखा कि पति को झपकी आ चुकी है। वह गिलास लिए खड़ी रही। कुछ पलों के बाद जब पति की आंख खुली तो उसने कहा, पानी। और पत्नी ने तुरंत पानी का गिलास उसकी तरफ बढ़ा दिया।
यह किस्सा किसी दूसरी महिला ने सुना, तो उसने अपने पति से कहा कि शाम को आप अपने काम से लौटकर आएं तो थोड़ी देर लेट कर झपकी ले लें। मैं जल लेकर खड़ी रहूंगी। उठ कर आप जैसे ही मांगेंगे, मैं तुरंत गिलास थमा दूंगी। पहली महिला ने अपनी भावना की वजह से पति के उठने का इंतजार किया था, जबकि दूसरी ने सोच-विचार कर, प्रतिस्पर्धा की वजह से। पति के लिए ऐसा आचरण उसने दिखाने के लिए किया।
आज पूरे समाज की स्थिति कुछ इसी तरह की है। अपने परिवार या समाज में हम जो कुछ कर रहे हैं, वह भावना की वजह से नहीं है, वह सोच-विचार का फल है। लड़का और लड़की शादी से पूर्व एक-दूसरे के गुणों पर विचार करते हैं, जैसे सुंदरता, नौकरी, परिवार का स्तर, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि। इसमें कोई भावना नहीं है, सोच-विचार है। भावना शादी के बाद पैदा होती है।
इसी तरह पिता और पुत्र अपनी-अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए एक-दूसरे को उपदेश देते हैं। पति और पत्नी परिवार के लिए अपने योगदान का जिक्र करते हैं। ऐसा वे प्रेम के कारण नहीं, बल्कि अपना प्रभाव जमाने के लिए करते हैं। इसके लिए वे अपने बौद्धिक कौशल का प्रयोग करते हैं। भारतीय परंपरा में इन संबंधों को भावनात्मक संबंध माना गया है, बौद्धिक नहीं।
एक सेठ जी ने सुना कि भागवत सुनने से व्यक्ति को परमगति प्राप्त होती है। उन्होंने अपने पुरोहत को टेलिफोन पर भागवत कथा सुनाने का अनुरोध किया। पुरोहित ने कहा, कथा महीने भर चलेगी। इसका खर्चा कम से कम एक लाख रुपये होगा। सेठ ने सोचा, एक लाख रुपये में मोक्ष मिल जाए तो सस्ता सौदा है। उधर पुरोहित ने सोचा कि एक महीने में एक लाख की आमदनी हो जाए तो बहुत है। भागवत पाठ संपन्न हुआ। मरने के बाद यमराज ने दोनों को ही नरक में भेज दिया। कारण यह कि वक्ता और श्रोता-दोनों में ही भावना नहीं थी, वे सौदेबाजी कर रहे थे।
भाव होता है, और विचार किया जाता है। विचार बुद्धि का विषय है। भाव हृदय से स्वत: निकलता है। ईश्वर न लकड़ी की मूर्ति में होता है, न पत्थर की मूर्ति में, न ही मिट्टी की मूर्ति में; वह तो भाव में निवास करता है। भाव ही भक्ति की मूल चेतना है। इसलिए हमारी प्रार्थना में भाव होना चाहिए। संचार साधनों के विकास से आज कथा-प्रवचन का विशेष वातावरण तैयार हुआ है। किंतु समाज के आचरण पर उसका कोई प्रभाव नहीं दिखता। इसका कारण है वक्ता और श्रोता में भाव का अभाव।
रस की निष्पत्ति भी भाव के द्वारा ही होती है। इसका निरूपण रामचरित मानस में बहुत सुंदर ढंग से किया गया है -जनकपुर में भगवान राम के प्रति जिसकी जैसी भावना थी; उसको राम उसी के अनुरूप दिखाई दिए। वीरों को लगा कि स्वयंवर में महावीर आया है। जनक और सुनयना को वे अपने बेटे की तरह लगे। योगियों को परम तत्व के रूप में दिखे। भक्तों को ईष्ट देव के रूप में दिखाई दिए और जानकी हृदय में जिस भाव का अनुभव कर रही थीं, उसका वर्णन करने में वाणी समर्थ नहीं है। इसीलिए कहा गया है -ज्ञान, योग और कर्म से भी श्रेष्ठ है भक्ति, जो भाव द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

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