शिक्षक दिवस:~ सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन और उनका शिक्षा दर्शन
सत्य की खोज के लिए
प्रयास करना भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषता है। ज्ञान की पिपासा
की शांति के लिए उचित निर्देश गुरु ही करता है। गुरु का अनूठा गौरव और पद ज्ञान के
किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा है । पारमार्थिक सत्य और लौकिक ज्ञान दोनों के
लिए गुरु के बिना कोई गति नहीं है। गुरु केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं देता। वह ज्ञान
और सांस्कृतिक विरासत की निरंतरता बनाये रखता है। व्यक्ति को परम्परा से जोड़ने का
कार्य गुरु ही करता है। भारतीय संस्कृति में गुरु को सदैव, सर्वत्र सबके द्वारा
सर्वोच्च गौरव मिला है। ऋषि- तुल्य गुरुओं की गौरवशाली परंपरा में नवीनतम
सर्वश्रेष्ठ उदहारण सर्वेपल्ली राधाकृष्णन का रहा है। वे लोकिक ज्ञान को ही नहीं पारमार्थिक
सत्य के भी शिक्षक थे। आधुनिक भारत में उन्हें श्रेष्ठतम सम्मान और पड़ प्राप्त हुए।
भारत रत्न के अलंकरण से वे विभूषित हुए।
राधाकृष्णन महान
व्यक्ति थे। उनका चिंतन जगत- प्रसिद्ध था, किन्तु उनका निजी जीवन अधिक प्रकाशित
नहीं है। राष्ट्र की विभुतिओं की जीवन गाथा और उनकी आतमकथा लोगों को प्रेणना देती
है। “माय सर्च फॉर ट्रुथ “ शीर्षक से अपने प्रारंभिक प्रयाशों का परिचय प्रस्तुत
किया है। अन्यत्र उन्होंने “ फ्रेग्मेन्न्ट्स ऑफ़ अ कन्फेशन“ के अंतर्गत अपनी कुछ
बातों का जिक्र किया है। इसी अवसर पर उन्होंने कहा – “मैं यह नहीं मानता कि मेरे
जीवन की घटनायें मेरे पाठकों के लिए विशेष महत्व की है। एक अर्थ में हमारी रचनाएँ,
जो हमसे ही उत्पन्न है, हमसे अधिक महत्व की है।
राधाकृष्णन का जन्म 5 Sep. 1888 में मद्रास के समीप तिरुपति
में हुआ था। मद्रास विश्व विद्यालय से M.A. की परीक्षा ससम्मान उतीर्ण की और 1909
में मद्रास प्रेसिडेंसी कालेज में दर्शन विभाग में अध्यापक नियुक्त हुए और 1916
में प्रोफेसर का पद प्राप्त किया। 1918 में वे मैसूर वि. वि. में दर्शन-शास्त्र के
प्रोफेसर नियुक्त हुए। 1931 से 1936 तक उन्होंने आंध्र वि.वि. के कुलपति के रूप में
उन्होंने अपनी सेवा प्रदान की। पुनः उन्होंने प. मदन मोहन मालवीय जी की इक्षा
सेउन्हें काशी वि. वि. के कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया जहाँ उन्होंने 1939
से 1948 तक अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
शिक्षा दर्शन
डॉ. राधाकृष्णन के जीवन पर स्वामी विवेकानंद, रवींन्द्रनाथ
ठाकुर तथा महात्मा गांधी का काफी गहरा असर था । उनके शिक्षा दर्शन में भारतीय
संस्कृति के प्रति उदार भाव, धार्मिक, नैतिक, एवं लोक कल्याणमय विचारों का
सामंजस्य तथा विश्व बंधुत्व की भावना है।
शिक्षा व मानव
डॉ. राधाकृष्णन मानव मात्र को ईश्वर का प्रतिरूप मानते हैं।
उनके अनुसार संसार के सभी नर नारी परमात्मा के ही अंश स्वरुप हैं। आज जो हमें अंतर
दिखाई देता है, वह मानव कृत है। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्यों में इस महान
महिमा पूर्ण भावना का प्रादुमूर्त किया जा सकता है। शिक्षा मानव विचारों की जननी
है। जैसी हमारी शिक्षा होगी, तदनुकूल हमारे विचार भी बनेंगें।
शिक्षा व अध्यात्मिक विकाश
डॉ. राधा कृष्णन का विचार है कि हमारे समाज का नव निर्माण
अध्यात्मवाद के द्वारा ही संभव है, परन्तु इसके ठीक विपरीत हमारे यहाँ भौतिकवाद को
प्रश्रय मिलता है। इस संसार के प्राणिमात्र का नियंत्रणकर्ता कोई अदृश्य महानतम
अलौकिक शक्ति है, मनुष्य ऐसा नहीं सोचता। भौतिकवादी लिप्सा तथा सामजिक तृष्णा ने
उसकी आध्यात्मिक प्रवृति को सर्वथा कुंठित कर डाला है फलस्वरूप मनुष्यों में अपने
भाई बंधुओं के प्रति हित की भावना की इक्षा, समाज कल्याण,और देश- कल्याण का स्वतः
आभाव हो जाता है अतः शिक्षा के वास्तविक उद्धेश्य की पूर्ति के लिए हमें अपनी
शिक्षण- संस्थाओं में आध्यात्मिक शिक्षा के प्रचालन की आवश्यकता है। राधाकृष्णन ने
कहा है कि “विज्ञान द्वारा खड़े किये गए खतरों को तभी अभिभूत किया जा सकता है जब हम
उन आतंरिक आवेगों में क्रांति लायें जो विज्ञान तथा ओद्धोगिकीका नियंत्रण करती हो”।
शिक्षा का सबसे बड़ा प्रयोजन यह है कि हमें सबसे पहले अपने आप
को अनुशासित करना है। डॉ. राधा कृष्णन ऐसी शिक्षा को हेय समझते हैं, जो मन को
उद्दीप्त तो करती है, परन्तु परितृप्त नहीं करती। शिक्षा का ध्येय उस स्व का ज्ञान
कराना है, जो गुण- दोष का विवेचक है। यदि शिक्षा हमें अच्छी तरह जीवन यापन करना
नहीं सिखलाती है तो निश्चय ही विफल मनोरथ हुई है।
शिक्षा व विश्व- बंधुत्व
डॉ. राधाकृष्णन लोक राज्य निर्माण हेतु कर्तव्य एवं नागरिकता
की भावना से ओत प्रोत कुशल जीवन यापन करने को क्षमता संपन्न, चरित्रवान, शिष्ट और
स्वावलंबी नागरिक तैयार करना चाहते हैं, जिनमें आदर्श जीवन यापन करने की शक्ति हो
तथा जो मानवता के विकाश हेतु अपनी अमूल्य निधि भी त्यागने को तैयार हो। डॉ. राधा
कृष्णन “वसुधैव कुटुम्बकम” के सिद्दांत में विश्वाश करते हैं। उनका विचार है कि “संसार के सभी व्यक्ति एक ही परिवार के
सदस्य हैं अतः स्वार्थपरता की भावना त्याग कर सभी को सबके हित- चिंतन की जरुरत है”
। सभी को सब की सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्रीयता को सम्मान की दृष्टि से देखने की
आवश्यकता है। वह शिक्षा के माध्यम से ही विश्व बंधुत्व की भावना बलवती बनाने पर
अत्यधिक बल देते हैं। उनका विचार है कि आज का मानव अत्यधिक भौतिकवादी हो गया है।
स्वार्थपरता की भावना ने उसके ह्रदय और मष्तिष्क को दूषित कर दिया है। आवश्यकता है
कि उनमें उदात्त विचारों का प्रादुर्भाव हो और जन कल्याण एवं मानव हितार्थ सोचने –
विचारने की शक्ति उत्पन्न करें। एकमात्र शिक्षा के आधार पर ही इस उद्देश्य की
पूर्ति की जा सकती है।
शिक्षा व मानव का नैतिक विकाश
डॉ. राधाकृष्णन नैतिकता को मनुष्य के सामजिक, बौद्धिक एवं
आध्यात्मिक विकाश का आधार मानते हैं। नैतिकता के कुछ सद्गुणों का समन्वय मात्र
नहीं हुआ करती, बल्कि चरित्र के अंतर्गत यह एक ऐसा संगठन है कि वे सभी मिलकर एक
इकाई का रूप धारण करते हैं। नैतिकता का एक बड़ा व्यापक गुण है तथा इसका प्रभाव
मनुष्य के समस्त कार्य- कलापों पर अत्यंत ही सूक्ष्म और विलक्षण होता है । इससे
वयक्ति का समस्त वयक्तित्व आंदोलित हुआ करता है। अतः हमारे सामजिक, बौद्धिक एवं
आध्यात्मिक विकाश के लिए नैतिकता के संगठन और संबर्धन की शिक्षा होनी चाहिए । डॉ.
राधाकृष्णन ने कहा है कि - “इतिहास उस संघर्ष की कथा है जो बाह्य वातावरण और
मनुष्य के आतंरिक मूल्यों में निरंतर युद्ध चल रहा है। और शिक्षा ही केवल एक ऐसा
साधन है, जिससे आशा की जा सकती है कि एक दिन कठोर वातावरण के पतनशील खिंचावपर इन
अमूर्त मूल्यों की विजय होकर रहेगी”।
प्रजातांत्रिक पद्धति पर आधारित शिक्ष
विद्यार्थिओं के बहुमुखी एवं वैयक्तिक विकाश के लिए डॉ. राधाकृष्णन
शिक्षा में जनतंत्रात्मक पद्धति के प्रयोग को मान्यता देते हैं। इसके आधार को अपना
कर तथा विभिन्न आदर्शों को स्वीकार कर ही हमलोग मानवता के उन समस्त गुणों से
साक्षात्कार कर सकते हैं जिसमें जन जीवन का कल्याण तो निहित है ही, विश्व शांति की
प्रमुख समस्या का समाधान भी सन्निहित है। अतः बालको के वैयक्तिक एवं बहुमुखी विकाश
के लिए सहानुभूति, उत्तर्दयीत्वापूर्ण सरल जीवन एवं कर्तव्यप्रयाणता आदि चारित्रिक
गुण के विकाश के लिए आवश्यक है कि शिक्षण- संस्थाओं का संगठन जनतंत्र की आधारशिला
पर अवस्थित है।
धार्मिक शिक्षा
धार्मिक शिक्षा के सबंध में डॉ. राधा कृष्णन के विचार
बड़े उदात्त एवं स्पष्ट है। वे शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्रदान करने के
पक्ष में हैं। धार्मिक शिक्षा के आधार पर मनुष्य की भौतिक तथा पाशविक प्रवृतिया
परिशोधित हो सकेगी और वह मानवता के उच्च आदर्शों से अपना हार्दिक सबंध स्थापित कर
सकेगा। धार्मिक शिक्षा अपने वास्तविक स्वरुप में सर्वश्रेष्ठ है तथा विश्व शांति
की जननी है। स्वामी विवेकानंद ने भी धर्म को शिक्षा का मेरुदण्ड बतलाया है। डॉ.
राधा कृष्णन के विचारानुसार “ शिक्षा और धर्म का संबंद उसी प्रकार है जिस प्रकार
शरीर और आत्मा का। यदि धर्म को शिक्षा से अलग कर दें तो हमारी आध्यात्मिक मौत हो
जाएगी।
इस प्रकार
उपरोक्त तथ्यों को देखने से पता चलता है कि डॉ. राधा कृष्णन के दर्शन में अपनी कई
विशेषताएं हैं। इसके साथ ही साथ उनके दर्शन में समकालीन भारतीय दर्शन की
नव्यवेदान्त विचारधारा की पूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है । उनके दर्शन में सर्वांगीण
दृष्टिकोण, समन्न्वय, जनतंत्र का समर्थन, मानवतावाद और सबसे अधिक
अन्तराष्ट्रीयतावाद मिलते हैं । इसलिए उनको आधुनिक युग में मानव चेतना का
प्रतिनिधि दार्शनिक कहा जा सकता है । उनके अपने शब्दों में – “ हमें विश्व की एकता
के लिए कार्य करना चाहिए । हमें एक ऐसी नयी पीढ़ी का निर्माण करना चाहिए, जिसका
विश्वास आध्यात्मिक जीवन की महानता, पवित्रता तथा मानवता के प्रति भ्रात्री – भाव तथा
प्रेम एवं शांति में हो।
विनम्र
श्रधांजलि
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