क्या राजनीति कभी ईमानदार हो सकती है ?



पिछले कुछ वर्षों से भारत में राजनीतिक घटनाक्रमों के संदर्भ में एक सवाल जो अक्सर आम लोगों के सामान्य बातचीत, बहस और परिचर्चा में सामने आता है वह यह है कि – क्या राजनीति कभी ईमानदार हो सकती है ? क्या यह संभव है की नेता और राजनीतिक दल ऐसे हों जो भरोसे के लायक हों, वह कर दिखने में सक्षम हों जो वो लोगों से वादा करते हैं?
राजनीति अन्तर्निहित रूप से गन्दा हो गया है – यह झूठ, धोखे और टालमटोल का खेल बन गया है। इसलिए एक ईमानदार राजनीतिज्ञ की आशा करना वैसा ही है जैसे कि एक कानून को पालन करने वाले चोर की उम्मीद करना।
राजनीतिक सोच कभी संतुष्ट नहीं होती। अक्सर वह नामुमकिन मांगे रखती है। उसका झुकाव समस्या को लंबा खींचते रहने में होता है ताकि हमेशा शोरगुल/संघर्ष की स्थिति चलती रहे और इस तरह से हमेशा स्थिति को गर्म रखा जाए।
इतिहास के ज़्यादातर समय में भारत एक राजतन्त्र रहा है। संपूर्ण भारत छोटे बड़े राज्यों में बंटा था जो हमेशा एक दूसरे से धन और ज़मीन के लिए युद्ध करते रहते थे। ऐसे राजा अवश्य थे जो बहादुर, कुशाग्रबुद्धि और करुणावान थे, निरंतर अपने लोगों के कल्याण के लिए काम करते थे, और पौराणिक कथाओं के विषय-वस्तु बन गए। वहीँ यह बात भी सच है की इनमें से अधिकतर प्रजापीड़क और निरंकुश थे, भोग-विलाष में लिप्त रहते थे और अनेक व्यर्थ चेष्टाओं में व्यस्त रहते थे। लेकिन वो समय काफ़ी पीछे छूट गया है और आज हमारे पास लोकतंत्र है। अब कोई राजा या रानी नहीं है, तब विचारणीय सवाल यह है की अंतिम रूप से इस देश के विकास या पिछड़ेपन के लिए कौन ज़िम्मेदार है। एक स्तर पर देखा जाए तो जो कुछ भी हो रहा है अथवा नहीं हो रहा है उसके लिए कोई व्यक्तिगत रूप से या खासतौर पर ज़िम्मेदार नहीं है। दूसरी ओर यह भी सच है की हम सभी इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर ज़िम्मेदार हैं क्योंकि अब हमलोग लोकतंत्र का हिस्सा हैं, हम सभी छोटे रूप में ही सही देश के शासक हैं। लेकिन मेरे विचार से किसी भी लोकतंत्र में वास्तविक जवाबदारी प्रबुद्ध और सशक्त नागरिक वर्ग पर ही होती है क्योंकि खास करके यही वो लोग हैं जो जानते हैं की क्या किये जाने की आवश्यकता है और इससे निपटने के लिए उनके पास साधन और योग्यता भी है।
लेकिन इस देश का यह अभिशाप है कि बाड़ ही फसल खाने में व्यस्त है। वे लोग जिनके ऊपर नाव को दूसरे किनारे पर ले जाने के लिए भरोसा किया गया है, वही उसमें छेद कर रहे हैं।
सबसे पहले, हम सभी को, जो अपने आपको राष्ट्र से प्यार करने वाले समझते है और राष्ट्र की वर्तमान स्थिति से चिंतित हैं, अपने स्वाधिरोपित एकाकीपन से बाहर आना होगा और अपने आसपास प्रगतिशील सोच के लोगों को पहचानना होगा। और फिर हम सभी को एक साथ आना होगा, साथ बैठ कर बातचीत, विचारविमर्श और चिंतन-मनन करना होगा। अपने कन्धों पर जबावदेही के भारी बोझ को महसूस करते हुए हमें धन, बुद्धि, योग्यता या श्रेष्ठता के मिथ्या व्यक्तिगत अहंकारों को त्यागना होगा।
निरंतर प्रयास से एक निर्धारित समय के बाद इसका परिणाम आना निश्चित है। अगर हम भारत को अपने सपनों का भारत, एक ऐसा भारत जिसके ऊपर हम गर्व कर सकें और जहाँ हमारे बच्चे सुरक्षित, सुदृढ़ और खुशहाल हों, बनाना चाहते हैं तो यही उचित समय है जब 
हम एक सार्थक प्रयास करें।

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