सेल्फी :~ खुद को प्रस्तुत करने की कला या सनक!!

बीसवीं सदी के प्रारंभ में, जब हमारे पास कैमरा उपलब्ध नहीं था तब पुराने जमाने के राजे-रजवाड़े और धनिक लोग चित्रकार से अपनी तस्वीर बनवाया करते थे, विज्ञान की खोज ने हमें कैमरा दिया और आज उन्नत किस्म का कैमरा एक साधारण से भी ज्यादा साधारण इंसान के मोबाइल में सुलभ ही उपलब्ध है।
आज हर तरह की स्वतंत्रता की बातें होनें लगी है, उस स्थिति में अपनी खुद की तस्वीर लेने की स्वतंत्रता कैसे रोकी जा सकती है। और शयद यही से सेल्फि की उपज हुई है। कारण जो भी हो, पर आज सेल्फी खुद की तस्वीर खींचने की, तस्वीर के माध्यम से अपने भाव व्यक्त करने का सबसे सरल उपाय है । आज लोग आते जाते रास्ते में, पार्क में, रेस्तोरां में, पर्यटन स्थल पर, अलग अलग मुद्राओं में खड़े होकर अपने स्मार्टफोन से सेल्फी लेते दिख जाते हैं। आए दिन हमारे राजनेता, खिलाड़ी, फिल्मी सितारे अपने तरह तरह के सेल्फी के लिए चर्चे में रहेते ही हैं । दरअसल आज, सेल्फी खुद को देखने का नया तरीका बन चुका है।
लोग कुछ अनोखा करने के चक्कर में, अपनी तस्वीर दूसरे व्यक्ति की तस्वीर से बेहतर दिखाने के चक्कर में कभी पहाड की चोटी पर चढ कर सेल्फी ले रहे हैं, कभी चलती ट्रेन के पास जाकर, तो कभी समंदर की उफ़नती लहरों के बीच बिना खतरे के अंदाज भांपे हुये सेल्फी ले रहे हैं। और परिणाम स्वरुप लोगों के इन जानलेवा हरकतों के लिए बार बार बड़े हादसे हो रहे है। कल इसी तरह की घटना में नागपुर में नाव में सवार 8 युवकों की जान फेसबुक लाइव के दौरान नाव के उलट जाने से हो गयी।
शोध के अनुसार 2015-16 में सेल्फी लेते समय सबसे ज़्यादा मौतें भारत में ही हुई है। दुनिया में आज जहाँ रोजाना दस लाख से अधिक सेल्फी ली जाती हैं, उसमें से 30% सेल्फी तो संकटपूर्ण अवस्था में ली जाती है। शोधकर्ता कह रहे है कि अबतक दुनिया में सेल्फी लेते समय जितनी भी मौतें हुई है, उसमें से सबसे अधिक मौतें (एक तिहाई भाग) ऊँचे जगहों जैसे ऊँचे इमारतों की छत या ऊँचे मीनारों से गिरकर हुई है। यह आंकड़े ही बता रहे हैं कि हमे नशे की तरह सेल्फी की भी लत लग चुकी है और अब खुद को इससे बाहर निकालना जरूरी हो चुका है।
सोशल मीडिया के आभासी जगत में तो ऐसे लोग अक्सर देखने को मिलते हैं जो अपने स्मार्टफ़ोन से भाँति-भाँति की अदाओं में सेल्फ़ी खींच कर फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि पर शेयर करते रहते हैं और अपने रूप-रंग और काया की तारीफ़ हासिल करने के लिए बिना इजाज़त दूसरों को टैग करने से भी नहीं चूकते।
सेल्फ़ी की यह संस्कृति आज जहाँ एक ओर आत्म-मुग्धता, आत्म-केन्द्रीयता व स्वार्थपरता का बोलबाला है वहीं दूसरी ओर भयंकर कुण्ठा व संवेदनहीनता व्याप्त है। किसी मृतक के अन्तिम संस्कार के समय सेल्फ़ी खींचने या किसी डॉक्टर द्वारा गम्भीर हालत में मरीज का इलाज करने से पहले सेल्फ़ी खींचकर सोशल मीडिया में अपलोड करने जैसी परिघटनाएँ दरअसल समाज की सांस्कृतिक पतनशीलता हो ही दर्शाती हैं।
सेल्फ़ी की यह संस्कृति दुनिया भर में तेज़ी से एक सनक का रूप लेती जा रही है। एक ऐसी सनक जिसके चलते लोग अपनी जान तक गँवा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सेल्फ़ी की इस सनक का असर लोगों के रिश्तों पर भी पड़ रहा है। अब मनोवैज्ञानिक भी यह कहने लगे हैं कि सेल्फ़ी खींचने के लिए अत्यधिक उतावलापन एक मानसिक रोग का सूचक है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर पिछले कुछ वर्षों से यह मानसिक रोग इतनी तेज़ी से दुनिया भर में क्यों फ़ैल रहा है?
आज से करीब डेढ़ शताब्दी पहले मार्क्स ने अपनी प्रसिद्ध आर्थिक एवं दार्शनिक पाण्डुलिपियों में अलगाव (‘एलियनेशन’) की जिस परिघटना की व्याख्या की थी वह हमें आज के दौर में समाज में तेज़ी से फ़ैलते जा रहे अलगाव और बेगानेपन को समझने में बहुत मदद करती है। व्यक्ति समूह से इस कदर कट जाता है कि उसके सारे प्रयास ‘हम’ की बज़ाय ‘मैं’ के लिए होते हैं।
समाज से कटे लोगों को सोशल मीडिया एक आभासी सामूहिकता का एहसास कराता है। ऐसे समय में जब वास्तविक जगत से दोस्ती, प्रेम, स्नेह, संवेदनशीलता, करुणा आदि जैसे सहज मानवीय मूल्य विलुप्त होते जा रहे हैं तो लोग इन नैसर्गिक भावनाओं की चाहत के लिए सोशल मीडिया के आभासी जगत की शरण ले रहे हैं। उत्पादन की दुनिया से बाहर सन्तुष्टि और खुशी की तलाश उन्हें एक आभासी दुनिया में ले जाती है जहाँ उन्हें सन्तुष्टि और खुशी तो मिलती है लेकिन वह क्षणिक और आभासी ही होती है और इस आभासीपन का आभास होने से उनका अलगाव और भी ज्यादा बढ़ता जाता है। सेल्फ़ी की सनक की ताजा परिघटना को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।

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