खुद की तलाश में

खुद को खोजने के क्रम में देखा कि:~
आजकल लेन-देन का जमाना है। आदमी अब वह काम नहीं करता, जिसमें उसे सीधा-सीधा फायदा नजर नहीं आता। यही कारण है कि अब प्यासे को पानी पिलाना व्यर्थ समझा जाता है और घड़े तथा सुराहियों का उपयोग करना पिछड़ेपन की निशानी के तौर पर देखा जाने लगा है। ज्यादा कड़वी बात कहो, तो आदमी सामने वाले को सनकी समझ कर चुपचाप आगे निकल जाता है। मेरे साथ कहाँ था जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला, कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।, जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला, हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में , कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ , फिर एक तरफ से आया , धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ ,जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मन के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही दिल में रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है, यहां तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया, वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको, जिस पर अपना मन प्राण न्योछावर कर आया, यह थी तकदीर की बात। मुझे गुण दोष न दो जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली, जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
....@नीरज

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