1857 की क्रांति के पुरोधा बाबू वीर कुवंर सिंह !!


आज हमारा देश आजाद है पर क्या हम अपनी इस आजादी के पीछे के उन क्रांतिकारियों की कुर्बानी को जानते है जिन्होंने अपनी पूरी उम्र अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष किया ? यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि उन आजादी के मतवालों की कहानियाँ हम दुहराते रहें ! देश के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के नायको मे एक 80 वर्षीय वीर योद्धा के बारे में जिसकी की दहाड़ से भी अंग्रेज़ो के छक्के छूट जाते थे ये नायक थे बिहार के बाबू कुँवर सिंह । उनकी वीरता के किस्से आज भी बिहार मे सुनाये जाते हैं। 
ब्रिटिश इतिहासकार होम्स की ये पंक्तियां ‘गनीमत रही कि 1857 की गदर के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी साल थी। अगर वो जवान होते तो अंग्रेजों को उसी वक्त भारत छोड़ना पड़ता’ आजादी की पहली लड़ाई के महायोद्धा बाबू कुंवर सिंह के ‘होने’ को ठीक-ठीक व्याख्यायित करती हैं।
1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम की विचारधारा को लेकर जितनी बहसें हमारे मुल्क में हैं, उतनी बहस शायद ही दुनिया के किसी आंदोलन को लेकर हो। इसमें से एक पक्ष न सिर्फ 1857 को स्वतंत्रता संग्राम मानने से इंकार करता है, वरन वह इसे महज सामंतों का विद्रोह करार देता है। 1857 के हजारों रणबाकुरों में से एक नाम बाबू कुंवर सिंह का भी है। वीर मराठा शिवाजी के बाद वह पहले ऐसे भारतीय योद्धा थे जो गुरिल्ला लड़ाई मे सिद्धहस्त थे। वीर कुंवर सिंह ने जिस तरह अंग्रेजों से लोहा लिया उसे देखकर लीबिया के महान स्वतंत्रता स्वतंत्रता सेनानी उमर मुख्तार की याद आ जाती है। गुरिल्ला युद्ध की दोनों की तकनीक में समानता दुर्लभ है। लेकिन, एक तरफ जहां उमर मुख्तार पर हॉलीवुड में ‘डेजर्ट ऑफ लॉयन’ नाम से अत्यंत प्रसिद्ध फिल्म भी बन चुकी है, वहीं हमारे देश की बड़ी आबादी वीर कुंवर सिंह का नाम तक नहीं जानती।
जो इतिहासकार 1857 को महज सामंतों का विद्रोह करार देते हैं, तथा सभी सामंतों को एक ही लाइन में खड़ा कर देते हैं। उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता का एक बड़ा तबका कुंवर सिंह जैसे अंग्रेजों के बागी सामंतों के साथ था। अब ऐसे में 1857 को महज सामंतों का विद्रोह कहना कहां तक सही होगा?
कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह जगदीशपुर रियासत के जमींदार थे। सम्राट विक्रमादित्य के वंश में जन्म लेने वाले कुंवर सिंह को बचपन से ही तीरंदाजी, घुड़सवारी और बंदूक चलाने का शौक था। हालांकि इनकी जमींदारी बिहार की बड़ी रियासतों में शुमार नहीं थी, तब तीन लाख रूपये सालाना की आय थी। इसमें से आधी रकम अंग्रेजी हुकूमत के हिस्से चली जाती थी। पिता ही की तरह अपनी रियाया का खून चूसकर अंग्रेजों का खजाना भरना कुंवर सिंह को गवारा नहीं था।
लगान वसूली न होने के चलते उन पर तेरह लाख रूपये का सरकारी कर्ज हो गया। अंग्रेजों के अत्याचार और उनकी हड़प नीति ने कुंवर सिंह को अंदर तक हिला दिया। बचपन से ही बगावती मिजाज के कुंवर सिंह ने 1845-46 आते-आते अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया। अंग्रेजों को जब इसकी भनक लगी तो उन्होंने एक चाल चली। 1855-56 में कर्ज में डूबे होने की दलील पर उनकी जमींदारी सरकारी राज्य प्रबंध के तहत ले ली गयी।
1857 में जमींदारी को राज्य प्रबंध से मुक्त कर दिया गया और एक माह के भीतर मालगुजारी की रकम अदा करने का आदेश दिया गया। ऐसा इसलिए ताकि कुंवर सिंह कर्ज अदायगी के बंदोबस्त में उलझ जाएं और विद्रोह की तैयारियां ठंडी पड़ जाएं। 1857 के विद्रोह में वे राजाओं, जमींदारों के साथ ही आम जन की भागीदारी सुनिश्चित करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने देश के सैकड़ों जमींदारों और राजघरानों को लड़ाई का न्योता भेजा। यह और बात है कि उनका साथ कुछ छोटे-मोटे जमींदारों ने ही दिया पर अपने उदार व्यक्तित्व, नेक इरादों और लोकप्रियता की बदौलत आम जन का उन्हें इतना बड़ा सहयोग मिला कि वे 1857 की गदर के पर्याय बन गये। 
तकरीबन एक साल तक कालपी से कानपुर और ग्वालियर से लखनऊ तक घोड़े पर सवार आजादी का यह दीवाना क्रांति की मशाल जलाता रहा। लगातार लड़ता रहा और अंग्रेजी फौज को धूल चटाता रहा। इस बूढ़े राजपूत शासक की तलवार गोरी गर्दनों के खून की प्यासी बन चुकी थी। और अंग्रेजों की उन्हें पकड़ने की तमाम कोशिशें असफल हुईं। इन्हीं कोशिशों के क्रम में फैजाबाद, आजमगढ़, गाजीपुर होते हुए उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के शिवपुर घाट से गंगा पार कर जगदीशपुर लौट रहे कुंवर सिंह और उनकी सेना पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया। इस हमले में उनकी बांह में गोली लग गयी। अदम्य साहस की प्रतिमूर्ति कुंवर सिंह ने अपनी ही तलवार से अपनी बांह काट गंगा को यह कहकर अर्पित कर दी कि गोरी गोली से यह अपवित्र हो गयी है और इसे तू ही पवित्र करेगी। कुंवर सिंह इसी हाल में 22 अप्रैल 1858 को जगदीशपुर पहुंचे। अंग्रेजों ने यहां भी हमला किया और एक बांह के हो चुके कुंवर सिंह ने मोर्चा संभाल लिया। आजादी की दीवानगी की आग इस बूढ़े शेर की आंखों में हुआ करती थी। जिस उम्र में इंसान का एक पैर कब्र में होता है उस उम्र में उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की कब्र खोदने का काम किया। पर अफसोस कुंवर सिंह इतिहास में वो जगह नहीं पा सके जिसके हकदार थे। लोक स्मृतियों में दर्ज कुंवर सिंह की वीरता के किस्से सुनने के बाद ऐसा ही लगता है। ऐसे में इतिहास के पन्नों और लोक जीवन में रची-बसी कुंवर सिंह की वीरता की दास्तान में बड़ा असंतुलन नजर आता है।
विनम्र नमन।

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