मीठी जुबान !!

"जुबां-ए-शिरी .......... मुल्क-ए-गीरी"
अर्थात
मीठी जुबान से मुल्क की बादशाहत जीती जा सकती है !!

भारत का मध्यम वर्ग आज विचारधारा के आधार पर जितना विभाजित है उतना पहले कभी नहीं था। पहले कुछ मसलों पर मध्यम वर्ग में एकता थी, लेकिन इस समय हर विषय पर मोदी समर्थक, संघ समर्थक, कांग्रेस समर्थक, वाम समर्थक आदि के विचारधारात्मक विभाजन को सीधे देखा जा सकता है।मध्यम वर्ग में राष्ट्र की अवधारणा और उसकी एकता की धुरी गायब है और उसकी जगह विचारधारा की धुरी आ गयी है।इससे देश के विकास में बाधा पहुँच रही है।विचारधारा के आधार पर समाज का विभाजन काफी पहले शुरू हो गया था , इस समय तो विचारधारा के आधार पर सामाजिक विभाजन पूरे चरम पर है।यह सामाजिक कमजोरी का लक्षण है।
          मजेदार बात यह है कि भारत के युवा जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच है वे सबसे ज्यादा विचारधारात्मक विभाजन के शिकार हैं, इनमें उदार मूल्यों के प्रति एकता कम और अनुदार और प्रतिगामी मूल्यों के प्रति आकर्षण बढ़ा है।इसकी तुलना में अशिक्षित समुदाय आज भी विचारधारात्मक विभाजन से मुक्त है।
          राजनीति में गालियों पर जब बहस हो रही है तो हम इस सवाल पर सोचें कि साहित्य में कभी किसी बड़े आलोचक ने आलोचना में गाली का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जबकि आलोचना भी तो इसी समाज में लिखी जा रही है और आलोचक भी इसी समाज से आता है ! वह उन मसलों पर भी गालियां नहीं लिखता जिन पर बोलते हुए आए दिन गालियां खाता है ! मैंने कम से कम ऐसे किसी आलोचक को नहीं पढ़ा जो आलोचना लिखते समय लेखक, आलोचक, पात्र या परिस्थितियों को गाली दे।फिर राजनीति में राजनीतिज्ञ ऐसा क्यों कर रहे हैं?
          फेसबुक और ट्वीटर पर कुछ लोग हिमायत कर रहे हैं कि अभद्र भाषा( गालियां) जायज है, तो उनके लिए या फिर अभद्र भाषा का प्रयोग करने वालों के लिए वह तात्कालिक तौर पर जायज हो सकता है लेकिन स्वस्थ समाज और स्वस्थ साहित्य के विकास में सामजिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिहाज से अभद्र भाषा ( गालियों) का चित्रण करने वाली भाषा या विचार कभी समाज और साहित्य पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाया है।जिन लेखक-लेखिकाओं और राजनीतिक वक्ताओं ने कभी भी गालियों और अभद्र शब्दों का प्रयोग किया है वे जल्द ही गालियों से दामन छुड़ाकर सभ्यता की शरण में लौटे हैं।
          अभद्र भाषा व्यक्तित्व और समाज को सुंदर नहीं बनातीं। यह तर्क गलत है कि एक व्यक्ति अभद्र भाषा बोलता है इसलिए दूसरा व्यक्ति मजबूर है।सवाल यह है लेखक या वक्ता चुनता क्या है ॽ वक्ता यदि प्रकृतवादी नजरिए से देखेगा तो उसे जो दिखेगा या सुनेगा उसका बिना चयन के चित्रण(उपयोग/प्रयोग) करेगा लेकिन यथार्थवादी नजरिए से देखेगा तो यथार्थ में से चुनेगा।


हमारे बीच में अनेक वक्ता हैं जिनके पास चयन का नजरिया नहीं है, वे जो देखते-सुनते हैं वही बोल रहे हैं,उनके प्रतिद्वंदी जिस भाषा में बोल रहे हैं, वे उसी भाषा में बोल रहे हैं। चयन के नजरिए के अभाव में बोली और लिखी गयी भाषाएं प्रकृतवाद के दायरे में आती हैं, वे यथार्थवादी भाषाएँ नहीं हैंयथार्थवादी वक्ता तो यथार्थ में से चुनता है। उसकी भाषा में मौलिकता होगी। हमारे जो मित्र गालियों के पक्ष में लिख रहे हैं मैं उनसे कहना चाहता हूँ, वे जरा इतिहास में जाएं और प्रकृतवाद बनाम यथार्थवाद के बीच के अंतर पर अवश्य मनन करें अन्यथा हमारी भाषायी संस्कृति का लोप होने में बहुत वक्त नहीं लगेगा

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