“कभी न होगा मेरा अंत........" महाप्राण निराला !!
स्वाभिमान का सूर्य- महाप्राण ‘निराला’
(21 फरवरी 1896 – 15 अक्टूबर 1961)
बसंत के आगमन पर यदि एक ओर ऋतुराज बसंत की मनोहरी छवि मन को आकृष्ट करती है,तो दूसरी ओर रचना-धर्मियों को बसंत-पुत्र निराला का स्मरण भी सहज ही हूँ आता है।
निराला ने अपने सम्पूर्ण जीवन को कभी न समाप्त होने वाले
बसंत की संज्ञा दी थी। उन्होंने लिखा है-
“कभी न होगा मेरा अंत
अभी अभी ही हो आया है
मेरे मन में मृदुल बसंत।“
निराला ने पतझड़ को कभी भी अंतिम परिणति के रूप में नहीं लिया। आश्चर्य होता है
यह देखकर कि दुखों से निरंतर घिरा रहने वाला कवि, संघर्षों से झुझते
रहने वाला यह रचनाधर्मी पुरे परिवेश में नव-जीवन का ‘अमृत मंत्रसर’ भर देना चाहता है। पतझड़ के
बीच से बसंत हँसता हुआ आये ... यह उसकी कामना है-
पुष्प-मंजरी के उर की प्रिय/ गंध-गंध गति ले आओ।
नव-जीवन का अमृत मन्त्र स्वर/ भर जाओ फिर भर जाओ।
यदि आलस से त्रिपथ नयन हों/ निद्रकर्षण से अति दीन।
मेरे वातायन के पथ से, प्रखर सुनना अपनी बीन।
वीणा की नव-चिर परिचित तब। वाणी सुनकर उठू तुरंत।
समझूं जीवन के पतझड़ में, आया हँसता हुआ बसंत।
निराला ऐसे रचनाकार थे जिनकी रचनाधर्मिता जीवन के तही से जुडी हुई थी। संत और
भक्त कवियों जैसी निस्पृहता उनकी जीवन शैली में स्वतः आ गयी थी। उनकी
दानशीलता को याद कर कर्ण और दधिची की याद आ जाती है जिन लोगों ने
अपनी निजी सुविधा बल्कि अपने अस्तित्व को भी नकार कर किसी याचक को सब कुछ दे देता हो, निराला ऐसे ही व्यक्ति थे।
किसी को अपने वस्त्र दे देना तो किसी को ठंढ से ठिठुरते देख उसे अपनी रजाई दे देना तो कोई भीख मांगने वाली महिला उन्हें
बेटा शब्द से संबोधित कर देती है तो परितोषित में मिली हजार रूपये
उस भिखारीन को दे देना यह उनके वीतरागी स्वभाव का परिचायक है।
निराला ने परंपरा से उसका श्रेष्ठ रूप ग्रहण
किया है। भारत के पहले आधुनिक कवि ग़ालिब, दुसरे रविंद्रनाथ और तीसरे निराला हैं क्यूंकि ये तीनो ही सामंतवाद की
रुढियों में नहीं फंसे। इनलोगों ने नए समाज का स्वप्न देखा और रीतिवाद को
तोडा। निराला इसमें अग्रणी रहे।
निराला का काव्य एक पर्वतमाला की तरह है, जिसमें अनेक शिखर और
घाटियाँ हैं। कहीं प्रणय, कहीं सौन्दर्य वासना, कहीं क्षोभ, कहीं करुणा, कहीं पराजयबोध और
कहीं पराजय को रख में बदल कर नयी जीवनशक्ति की खोज। निराला के जीवन
और काव्य को समझाने के लिए इन पंक्तियों को मूल कुंजी मन जा सकता है –“बार-बार हार मैं गया/ खोजा जो हार क्षार में गया / उडी धूल, तन सारा भर गया”।
निराला का धूल में नहा जाना एक भारतीय इंसान का
बिंब है। उनकी पत्थर तोडती औरत की अवस्था यही थी- ‘गर्द चिनगी छा गयी’। उनके तुलसीदास भी देश काल
के शर से बिंधे हैं। रावण से लडाई के क्षणों में राम की आँखों में अश्रु के
बावजूद उनका संघर्ष ठहरता नहीं। यह संघर्ष निराला का व्यक्तिगत नहीं था, सम्पूर्ण भारतीय जाति का था। आखिरकार किस ताकत से आदमी धुल में नहाकर भी जूझ
रहा है, औरत हाथ में हथौड़ा लेकर ‘करती बार-बार प्रहार’, तुलसीदास ठानते है – ‘होगा फिर से द्द्धुर्ष समर’, तथा आखिरकार किस ताकत से राम का ‘एक और मन’ नहीं थकता? ‘वन बेला’ में यही बात है, नया उन्मेष नहीं
रुकता। बेला पत्थर खाकर भी नृत्यमग्न है- “नाचती वृंत पर तुम, ऊपर/ होता जब
उपल-प्रहार प्रखर”। जिस ताकत से इतना कुछ घट रहा है। वह साधारण नहीं है।
इसी ताकत से कुकुरमुत्ता किसान के पक्ष में कहता है – ‘पड़ा कंधे पर हूँ हल बलराम का’ और अंग्रेजी राज के दंभ को चुनौती देता है, ‘देख मेरी नक़ल है अंग्रेजी हैट’। एक बात ध्यान देने
योग्य है कि निराला ने असाधारण राम को साधारण और साधारण कुकुरमुत्ता को
असाधारण बना दिया। ऐसी ताकत सिर्फ इतिहास में होती है या
उसमें जो निर्भय होकर इतिहास को जीता है। जन साधारण की व्यथा से -अनुभव यथार्थ से वह
स्वयं गुजरे थे इसलिए वह जीवन-यथार्थ मात्र झरोखा दर्शन नहीं था बल्कि जीवन
का कमाया हुआ सत्य था। निराला जी स्वयं उपेक्षा- अपमान की ज्वाला में जीवन भर जले थे- ‘जब कड़ी मारें पड़ीं दिल हिल
गया’। उनके जीवन और सृजन का बीज भाव ‘साधारण’ से असाधारणता में ही निवास करता है। इसलिए हर कोण से उन्होंने साधारण के
दर्द पराजय-निराशा-टूटन-थकान को अभिव्यक्ति दी।
सन 1911 में 12 वर्ष की अवस्था में
उनका विवाह मनोहरदेवी के साथ हुआ था। पन्द्र साल की उम्र में 1914 में पुत्र तथा अठारह
साल की उम्र में 1917 में पुत्री सरोज का जन्म हुआ। 1918 में उनकी पत्नी
मनोहरा देवी की मृत्यु हो गयी तथा 1935 में बेटी सरोज 19 वर्ष की अवस्था में
यक्ष्मा की बीमारी से मृत्य हूँ गयी। आर्थिक विपन्नता में निराला
जी न तो बेटी का समुचित इलाज ही करा सके न ही ही पुत्र को उचित शिक्षा दिला सके। बेटी सरोज की मृत्यु ने उन्हें भीतर से तोड़ दिया
था। निराला ने बेटी सरोज की स्मृति में एक कालजयी रचना लिखी थी ‘सरोजस्मृति’(1935)। निजी तौर पर भी 1940-46 तक उन्होंने बेहद आर्थिक-सामाजिक यातनाएं झेली।
साहित्यकार को रोटी-कपडे जैसी क्षुद्र वस्तुओं
की चिंता न हो, ऐसी बात नहीं है। सरोज स्मृति में इसी अंतर्विरोध का
चित्रण करते हुए निराला ने आर्थिक पक्ष पर बल दिया है –
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ समर।
‘देवी’ कहानी में निराला ने परिवेश
से अपने संबंधों के बारे में लिखा है –‘मेरी दुनिया भी मुझसे दूर
होती गयी; अब मौत से जैसे दूसरी दुनिया में जाकर मैं उसे
लाश की तरह देखता होऊं।‘ निराला ने एक जगह दूसरी परिवेश के बारे में
लिखा है- ‘दूबर होत नहीं कबहूँ पकवान के विप्र, मसान के कूकर’ की सार्थकता मैंने दुसरे मित्रों में देखी, जिनकी निगाह दूसरों की
दुनिया की लाश पर थी। वे पहले फटीचर थे, पर अब आमिर बन गए हैं, दो-मंजिला मकान में रहते हैं और मोटर पर सैर करते हैं। और
फिर अपने बारे में कहते है मेरा उनलोगों से जैसे नौकर-मालिक का रिश्ता
हो, हाँ अच्छा आदमी है; जरा सनकी है’ और हंसाने लगते हैं।
निराला के दो मन थे- एक थका हुआ ..और दूसरा मन
अपराजेय, सतर्क और विवेकपूर्ण; जैसे मनो वह अर्धनारीश्वर थे। देखने में सुन्दर, बड़ी-बड़ी आँखें, घुंघराले बाल...वह
स्वयं अपने रूप पर मुग्ध थे। उनमें पुरुषत्व, आसक्ति, आक्रामक व्यवहार सब
कूट-कूट कर भरा हुआ था। निराला का अंतर्मन -अपने पुरुषत्व के प्रमाण देने के लिए
उत्सुक रहता था। उनके मार्ग में जितनी भी कठिनाइयाँ बढती जाती, उनका भिक्षुक मन उतना ही अधीर हो उठता था। सौभग्य से निराला पहलवान, सन्यासी, महाकवि, राजनीतिज्ञ, राजा, सब कुछ एक साथ बनाना चाहते थे; इसलिए उनकी उर्जा विभिन्न
कल्पना-चित्रों में बिखर गयी। निराला ने परंपरा से उसका श्रेष्ठ रूप को
स्वीकार किया है।
रविन्द्रनाथ टैगौर ने एक जगह लिखा है कि ‘तथ्यों की तंग और
चुस्त पोशाक में जकड़े सत्य को चलने-फिरने में बड़ी दिक्कत होती है।
फितरत यानी सृजनात्मक कल्पना का मुक्त आवरण ही उसे रस आता है। यों तो अभिव्यक्ति मात्र आवरण है; निरावरण सत्य मनुष्य झेल
नहीं सकता’।
पोलेंड के एक कवि चेस्वाव मिवोश ने अपने
संस्मरण में कहीं लिखा है-‘ ......कवि को हमेशा अपने ‘कवि’ होने की छवी को बरक़रार रखना चाहिए। एक जगह परेशान हो जाओ, फिर वहां से उठकर दूसरी जगह
जाओ और वहां भी परेशान होने लगो इससे बेहतर है कि यह मान लो कि तुम
हमेशा और हर जगह परेशान रहोगे क्यूंकि तुम ऐसे कवि हो जो अपने
चारो तरफ मकड जाल की तरह एक अबूझ भाषा बुनकर अपने को कुछ दूर कर लेना।
आज की कविता को निराला से अभी बहुत कुछ सीखना
है। निराला ने समाज की संघर्ष एवं विकृतियों को देखा फिर भी मानव जीवन के
प्रति आस्था कायम रखी तभी उनके काव्य मानववादी भमिका पर स्थिर रहा। वह व्यक्ति निष्ठा, पलायनवादी या प्रतीकवादी
नहीं बनी। उनकी समस्त रचनाओं में ध्यान देने योग्य जो बात है वह पहले आशा के स्वर
को लेकर चले हैंफिर आक्रोश के स्वर को और अंत में परम सत्ता के आह्वान के स्वर को। उनके काव्य में एक सामंजस्व है। वह समंजस्व की
भूमिकामानाव्वादी स्तर पर है, मानव जीवन के आस्था पर निर्मित है; यह निराला जी का मूल्यवान
दें है। आज समाज में ऐसे काव्य की रचनाएँ की जा रही है जो पूर्णतः समाज
निरपेक्ष, जीवन निरपेक्ष और व्यक्तिवादी -अस्तित्ववादी हैं जो मानव
विकास के लक्ष्य को छोड़कर चलता है, आत्मसंतोष और
व्याक्तिक्त्ता का रस्ता पकड़ता है।
महान कवि वह है जो आस्था नहीं खोता, पराजित नहीं होता और
अपने को कठिन परिस्थितियों में रखकर भी मानववादी भूमि पर बना रहता
है। निःसंदेह निराला ऐसे ही कवि थे। हिंदी साहित्य के मणिदीप, उज्जवल अलोक नक्षत्र हैं। निराला का अस्त होना हिंदी काव्य सूर्य
का अस्त है।
ऐसे विशिष्ट और महान संघर्षशील कवि के प्रति हम
अपनी श्रधांजलि अर्पित करते हुए अपूर्व गर्व का अनुभव हो रहा है।
ज्ञान गंगा में, समुज्ज्वल चर्मकार।
चरण छूकर करता मैं नमस्कार।
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