बड़े संबोधनों के कवि ~ रामधारी सिंह 'दिनकर' !!
अपने
समय का सूर्य हूँ 'मैं'....... रामधारी सिंह ‘दिनकर’
!!
(23 सितंबर 1908- 24 अप्रैल 1974)
"तुमने दिया राष्ट्र को जीवन, राष्ट्र तुम्हें क्या देगा।
अपनी आग तेज रखने को, नाम तुम्हारा लेगा।।“
रामधारी
सिंह ‘दिनकर’ की ये पंक्तियाँ आज खुद दिनकर पर ही ये पंक्तियाँ चरितार्थ हो रही है। दिनकर
ने जिस समाज और राष्ट्र की कल्पना अपनी कविताओं में उकेरने की कोशिश की थी, वह पुस्तकों के ऊपर जमी धुल की परत में अपना अर्थ को खोती चली
जा रही है। आज की युवा पीढ़ी की साहित्य साधना केवल गूगल और विकिपीडिया से दो
पंक्तियों को खोज कर उद्धृत कर जन्मतिथि या पुण्यतिथि पर कोई कार्यक्रम आयोजित कर
पल्ला झाड़ लेने तक ही सिमित रह गयी है।
23 सितम्बर 1908 को बिहार की मिटटी से निकला एक सूरज, जो पूरे हिंदी साहित्य
में अपनी क्रांतिकारी और श्रेष्ठ वीर रस की कविताओं के लिए जाना जाता है, जिसकी अद्भुत शैली में लिखी गयी काव्य-ग्रन्थ हिंदी साहित्य के लिए वह अमूल्य
ऋण है, जिससे वह कभी उऋण नहीं होना चाहेगा। देशभक्ति की भावना से प्रेरित होकर वीर रस की कवितायेँ लगभा हर कवि ने लिखा, पर राष्ट्रकवि की संज्ञा सिर्फ दो कवि को ही मिली- पहले हैं
मैथिलीशरण गुप्त और दुसरे हैं रामधारी सिंह ‘दिनकर’। दिनकर ने अपनी दो कृतियाँ ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ तब
लिखी थी जब देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज सरकार को इनकी
कविताओं पर आपत्ति थी, वाबजूद इसके दिनकर ने निर्भय होकर बिना किसी आपत्ति की परवाह किये
अपनी कृति को रचने में मुखर रहे।
उनकी
कृतियाँ सत्य, शिव और सुन्दर के अनूठे मेल का सीधा
साक्षात्कार है, जो सदैव हर पीढ़ी के पाठकों के मन में बिना
निषेध गहरे उतर जाती है। उनकी रचनाओं में अभाव और विसंगतियों की चोट से आहत सम्मान
और लहू से लथपथ स्वभिमान लिए जीनेवालों की हीनता की लौह-कार से मुक्ति दी है, अपने अधिकार के लिए लड़ने की ताकत दी है, आत्मसम्मान की भावना जगाई है और अपने प्रति गौरव का बोध
दिया है। इनके काव्य-ग्रंथों की विशेषता है कि केंद्र में चाहे जिस चरित्र को रखा
गया हो, पर जब वह चरित्र बोलता है तो उसके स्वर में
दिनकर की कुछ कवितायेँ नहीं, उनका
पूरा काव्य-यग्य परिभाषित होता है। दिनकर ने जब भी कलम उठाई है, एक सकारात्मक बदलाव के दिवा-स्वप्न को साकार करने की चाह
में उठाई है।
आरंभ
में, दिनकर ने कतिपय छायावादी कविताएं लिखीं, परंतु जैसे-जैसे वह अपने स्वर से स्वयं परिचित होते
गए, अपनी काव्यानुभूति पर ही अपनी कविता को आधृत करने
का आत्मविश्वास उनमें बढ़ता गया। दिनकर वस्तुतः द्विवेदी युगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों
के बीच
सेतु कवि बन गए थे। उनके ही शब्दों में, ‘पंत के सपने हमारे हाथ में आकर इतने वायवीय नहीं रहे, जितने कि वे छायावाद-काल
में थे। किंतु द्विवेदी युगीन अभिव्यक्ति की प्रांजलता और स्वछंदता की
नई विरासत हमें आप से आप प्राप्त हो गयी।‘
इस मंतव्य के प्रसंग में दिनकर की ‘रसवंती’, ‘द्वन्दगीत’ आदि काव्य कृतियां संदर्भित करने योग्य हैं।
दिनकर,
बच्चन जी की तरह एकांतवादी नहीं,
वरन मूलतः सामाजिक चेतना के मुखर प्रवक्ता थे। दिनकर
के प्रथम तीन काव्य संग्रह ‘रेणुका’
(1935) ‘हुंकार’
(1938) और ‘रसवंती’
(1939) उनके आरंभिक आत्ममंथन-युग
की काव्य- रचनाएं हैं। ‘रेणुका’
में अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आग्रह और आकर्षण परिलक्षित होता है। साथ ही,
वर्तमान परिवेश की वस्तुस्थिति से त्रस्त मन की व्यथा वेदना का परिचय प्राप्त होता
है। ‘हुंकार’ में तो कवि
अतीत
के गौरव-गान की अपेक्षा वर्तमान दैन्य के प्रति आक्रोश-प्रदर्शन की ओर अधिक उन्मुख हुआ है। 'रसवंती' में कवि के
सौन्दर्यनुराग की भावना काव्यमयी हो गयी है। ‘सामधेनी’
(1947) में दिनकर
की सामाजिक चेतना स्वदेश और परिवेश की
परिधि से आगे बढ़कर विश्व वेदना का अनुभव करती-कराती
जान पड़ती है। इसमें कवि के स्वर का वेग और ओज नए शिखर पर
पहुँच गया है। उसके
बाद ‘नीलकुसुम’ (1953) में हमें
कवि के एक नए रूप के दर्शन होते हैं,
यद्यपि इतने नए नहीं, जितने
नयेपन का बोध स्वयं कवि को था। यहाँ वह काव्यात्मक
प्रयोगशीलता के प्रति अधिक आस्थावान हैं।
उत्तम
मुक्तक काव्यों के अतिरिक्त दिनकर ने अनेक प्रबंध-काव्यों की
रचना की है, जिसमें ‘कुरुक्षेत्र’
(1946), ‘रश्मिरथी’
(1952) और ‘उर्वशी’
(1961) प्रमुख
है।
‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के
शांतिपर्व के मूल कथानक का प्रतिमान लेकर उन्होंने युद्ध और शांति के विराट और
गंभीर एवं महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठिर के संलाप के
रूप में आवर्जक काव्यभाषा में उपन्यस्त किया है। ‘रश्मिरथी’
में भी महाभारत की ही कर्ण-कुंती
की कथा को प्रभावशाली ढंग से कव्यायित किया गया है। ‘कुरुक्षेत्र’
के बाद उनके नवीनतम काव्य-रूपक ‘उर्वशी’ में फिर
हमें विचार-तत्व की प्रमुखता प्राप्त होती है। सहस्पुर्वाक
गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले ‘कुरुक्षेत्र’ को हिंदी जगत में
यथेस्ट लोकादर प्राप्त हुआ। ‘उर्वशी’, जिसे स्वयं कवि ने ‘कामाध्यतम’ की
उपाधि प्रदान की है, एक नए शिखर का स्पर्श
करती है।
दिनकर
आधुनिक
कवियों की प्रथम पंक्ति के कवि हैं। यह निश्चयपूर्वक उद्घोषित
किया जा सकता है। रस, भाव और वैचारिकी
की उनके
काव्यों में कमी नहीं है, भले ही दार्शनिक
गंभीरता कम हो। उनकी काव्य-शैली में प्रसाद गुण का प्राचुर्य
है, प्रवाह, ओज और अनुभूति
की तीव्रता है, साथ ही सच्ची संवेदना भी। उनके विचारों
में मौलिकता भी है। उनके काव्यवर्णित चित्र सर्वथा
स्पष्ट होने से वे ततोधिक जन्ग्राह्य या सम्प्रेशंशील हैं और साधारणीकरण
के तत्व भी कम नहीं हैं। उनकी कविताओं का विशिष्ट गुण है। उनकी अभिव्यक्ति
की तीव्रता में चिंतन-मनन की प्रवृति
स्पष्ट
दिखाई पड़ती है। उनका उनका जीवन-दर्शन उनका अपना जीवन दर्शन है, जो उनकी काव्यानुभूति से अनुप्राणित तथा उनके अपने विवेक से
अनुप्राणित, परिणामतः निरंतर परिवर्तनशील है।
दिनकर
की गद्ध-
कृतियों में उनकी नैबन्धिक प्रतिभा की विलक्षणता और विचक्षणता
के दर्शन होते हैं क्षणता उनका महाग्रंथ ‘संस्कृति के चार
अध्याय’ (1956),
जिसमें उन्होंने प्रधानतया शोध और अनुशीलन के आधार पर मानव-
सभ्यता के इतिहास का चार अध्यायों या पडाओं
में बाँटकर अध्ययन किया है। इसके अतिरिक्त
दिनकर के समीक्षात्मक तथा विविध निबंधों के संग्रह हैं। उकी प्रसिद्द आलोचनात्मक
नैबंधिक कृतियाँ हैं- ‘मिटटी
की ओर’ (1946), ‘काव्य की भूमिका’ (1958), पंत,
प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त’
(1958), ‘शुद्ध कविता की खोज’(1966) एवं ‘अर्धनारीश्वर’।
अर्धनारीश्वर
के निबंधों
में बौद्धिक चिंतन तथा विश्लेषण के तत्व अंकित है। जो पाठक
कविताओं में अभिरुचि लेते हैं, वे
दिनकर के निबंधों, खासकर ‘अर्धनारीश्वर’
के निबंधों में अधिक रमेंगें और रिझेंगें
भी। अर्धनारीश्वर के निबंधों की भाषा गद्ध्यात्मक ओते हुए भी पद्धात्मक हैं, जिसमें युगबोधता मुखरित हुई है।
अर्धनारीश्वर के वयक्तिक निबंध अपने समय के प्रतिनिधिनिबंध हैं। दिनकर की नैबंधिक दृष्टि नितांत बुद्धिमुलक न होकर हृदयमूलक अधिक है। ‘खड़ग और वीणा’,
‘मंदिर और राजभवन’,
‘कर्म और वाणी’, ‘चालीस की उम्र’, ‘हड्डी की चिराग’
आदि निबंधों में लेखक ने अपने अहं का ही निष्कपट उदभावन
किया है, व्यक्तिक या ललित निबंध का उल्लेख के गुण
है। पाठक ज्यों-ज्यों लेखक की आत्मस्वीकृतियों को सहज ही
आत्मसात करता जाता है, त्यों-त्यों लेखकीय व्यक्तित्व के अनेक
आवृत-अनावृत परतें उसके समक्ष अनायास उभरती जाती है। फलतः
लेखक के व्यक्तित्व के माध्यम द्वारा पाठक का एक ही व्यक्ति से परिचय नहीं होता,
अपितु संपूर्ण मानव व्यक्तित्व से हो जाता है। इसलिए, यह कहना
सही होगा कि व्यक्तिगत निबंध के रचयिता की रचना प्रक्रिया में संपूर्ण विश्व
अंतर्निहित हो जाता है।
यह सर्वविदित है कि दिनकर जी, मैथिलीशरण गुप्त,
जिन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा जाता था, उनके जीवनकाल
में राष्ट्रकवि कहलाने लग गए थे। राष्ट्रकवि की उपाधि राजकीय स्तर पर अब तक
भी भारत सरकार में नहीं दी जाती है,
पर जनता तो दे देती है। जनता ने कुरुक्षेत्र की रचना के बाद यह उपाधि दिनकर जी को दे दी थी, इसलिए उन्होंने अपनी काव्य-रचना के द्वारा इतिहास में ‘लीक’ बनाई थी। भारत में राष्ट्रवाणी के वह सबसे बड़े कविथे। उन्हें
राष्ट्रकवि कहा जाना सर्वथा राष्ट्रभावना का आदर था,
ठीक उसी प्रकार जैसे जयप्रकाश नारायण जी को ‘लोकनायक’
कहा जाने लगा और गांधी को ‘राष्ट्रपिता बापू’। ‘उर्वशी’ को “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार” जबकि ‘कुरुक्षेत्र’ को “विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ
काव्यों में 74वाँ स्थान” दिया गया। हरिवंश राय बच्चन ने कहा था "दिनकर जी को एक नहीं गद्य-पद्य-भाषा-हिंदी सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ
पुरस्कार दिया जाना चाहिए"।
जब भी मैं
उर्वशी के पन्नों को उलटता-पुलटता हूँ.... हर बार मन में एक विचार आता है.......बिहार
की धरती से निकला यह सूरज, जो पूरे हिंदी साहित्य में
अपनी क्रांतिकारी और श्रेष्ठ वीर रस की कविताओं के लिए जाना जाता है, मन की गहराई में इतना सौन्दर्य कहां छिपाए हुए था....आखिर वीर रस के श्रेष्ठ
कवि ने सौन्दर्य रस में 'उर्वशी' जैसा
एक पूरा खंडकाव्य क्यों लिखा होगा? दिन भर देश की आजादी और
उसकी अन्य समस्याओं से उद्वेलित इस कवि के मन में सौन्दर्य आखिर किस वातावरण
में जागा होगा...! हालाँकि व्यक्तिगत तौर पर ‘रश्मिरथी’ मेरी सबसे पसंदीदा पुस्तक है। सदैव यह पुस्तक मेरे सिरहाने के पास मौजूद होती है और जब कभी भी निराश या
हतास होता हूँ, ‘रश्मिरथी’ सदैव मुझे कुंठा से बहार निकालने में सफल रही है......विशेषकर
यह पंक्ति।
......
पर, जानें क्यों, नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
भोगी
सुख भोगता,
तपस्वी और अधिक जलता है।
@रश्मिरथी
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