कवि रसखान की कृष्ण-भक्ति !!
हिंदी साहित्य के भक्ति काल में सूर, तुलसी, नंददास, कुंभनदास मीरा आदि के अनेक भक्त कवियों ने राम और कृष्ण की
लीलाओं का गान किया है, वहीँ मुस्लिम भक्त कवियों नजी, आलम, यारी साहब,
दरिया साहब आदि भी श्रीकृष्ण का गुणगान करने में पीछे
नहीं रहे हैं।
इन्हीं में से एक प्रसिद्ध भक्त कवि थे- रसखान। रसखान वास्तव में रसों के खान थे। उन्होंने श्री कृष्ण
की लीलाओं का गुणगान कर के अपने-आप को
धन्य कर लिया। कृष्ण
के प्रति रसखान की वह प्रेम तल्लीनता ही थी, जो उन्हें अफगानिस्तान के पठार से व्रज की करील-कुंजों में
खींच लायी।
रसखान ने श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव बनाया तथा ब्रज में आकर बस गए।
यहां रहकर वे श्रीकृष्ण की लीलाओं में रम गए। वह भक्त पहले थे,कवि बाद में। उनका संपूर्ण
जीवन ही इस बात का प्रमाण है। श्री कृष्ण के प्रति उनकी प्रेम की
जो पीर परिलक्षित होती है वह अन्यत्र नहीं मिलती। निम्नलिखित
पंक्तियों से यह बात द्रष्टव्य है---
मोहन छबि रसखानि
लखि, अब दृग अपने नाहिं।
ऐंचें आवत धनुष
से, छूटे सर से जाहिं।।
मो मन मानिक ले
गयो, चिते चोर नंदनन्द।
अब बेमन मैं का
करूँ, परी फेर के फंद।।
सीस मुकुट सूचि
क्रीट को, सुंदर सी
श्रीभाल।
पेखत ही छबि बनत
है, धन्य धन्य गोपाल।।
रसखान ने श्रीकृष्ण के
रूप पर मोहित होकर अपना कुल,
समाज, धर्म आदि सभी को छोड़ दिया था। वे वैष्णव हुए, उनकी भक्ति पर रीझकर श्रीनाथ
जी को कहना पड़ा कि ‘अब कहाँ जात हो’ - जब बाहर निकसिवे लागे, तब श्रीनाथजी ने रसखान जी की बाँह पकरि, क्यों अरे ‘अब कहाँ जात हो।‘
रसखान सदैव श्रीकृष्ण
के रूप-सौंदर्य पर ही रीझते रहे। वे श्री कृष्ण के रूप-लावण्य पर ही मतवाले थे। इसलिए उनकी रचनाओं में श्रृंगार रस
की बहुलता है—
जा दिनते
निरख्यो नंद-नंदन, कानि तजी घर
बंधन छुट्यो।
चारू बिलोकनिकी
निसि मार, संभार गयी मन मारने
लूट्यो।।
सागरकों सरिता
जिमि धावति रोकि रहे कुलको पुल टुत्यो।
मत्त भयो मन संग
फिरे, रसखानि सुरूप सुधा-रस घुत्यो।।
रसखान की भक्ति की दूसरी विशेषता यह थी कि वे सदैव श्रीकृष्ण के निकट ही रहना चाहते थे।
चाहे वह अगले जन्म में मनुष्य बनें, चाहे पशु, उनको चाहे पत्थर बनना पड़े अथवा
पक्षी, वे तो श्रीकृष्ण से यही विनती करते हैं कि उन्हें अगले जन्म में भी अपने
निकटस्थ ही रखें, ताकि उनकी रूप-सौन्दर्य का आनंद लूट
सकें। यही दृष्टिगोचर हो रहा –
जा दिनते
निरख्यो नंद-नंदन, कानि तजी घर
बंधन छुट्यो।
चारू बिलोकनिकी
निसि मार, संभार गयी मन मारने
लूट्यो।।
सागरकों सरिता
जिमि धावति रोकि रहे कुलको पुल टुत्यो।
मत्त भयो मन संग
फिरे, रसखानि सुरूप सुधा-रस घुत्यो।।
रसखान तो भक्ति के अवतार
ही थे। और
अपना सर्वस्व त्याग कर वृंदावन आ बसे। यहीं रह कर वे श्रीकृष्ण की लीलाओं का अनवरत गान करते रहे और अंत में इसी ब्रजधाम में
समा गये।
उनकी भक्ति माधुर्य भाव
की थी।
इसलिए उन्होंने नख-शिख और विहार-वर्णनों में रूचि दिखलायी। इस
प्रकार व्रज का यह मुसलमान भक्त कवि श्रीकृष्ण की
लीलाओं पर मोहित हो गया। उनके रूप-सौन्दर्य पर रीझ गया। ऐसे
ही भक्त मुसलमान कवि को देखकर भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था ‘इन
मुसलमान हरिजनन पे कोटिन हिंदुन वारिये।‘
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