"परसोंकि प्रिय आवन की जो कही, कब आवेगी वैरिन परसों !"
बृज की गोपियों का श्रीकृष्ण के साथ इतनी गहरी आत्मीयता थी कि श्री कृष्ण प्रेम ही उनका जीवन हो गया। कृष्ण तो बड़े ही नटखट थे। उन्होंने जब देखा कि अब ये गोपियाँ अपने मन की हो गई है परंतु इनको अभी तक मेरी समीपता पसंद है। तब श्रीकृष्ण उन्हें सबक सिखाने की बात सोची।जब कृष्ण ने यशोदा से और नंद से कहा बाबा हमने आपका बहुत दूध- मक्खन खाया, बाबा अपनी गाय को खुद संभालो। मैं तो मथुरा जा रहा हूँ, मामा कंस ने बुलाया है।
यह सुनते ही नंद और यशोदा इतने अधीर और व्याकुल हो गए कि कहने लगे- लाला! लाला! यह गाय और माखन, दही-दूध सब तेरे हैं, हमारा कुछ नहीं है। मैया यशोदा विलाप करती है और कहती है' 'है कोई इस ब्रज में जो कन्हैया को रोक सके? कन्हैया जा रहा है। क्या कोई ऐसा प्रेमी है, जो इसे रोक ले?जब गोपियों ने यह बात सुनी तो वह कहने लगी कि मैया यशोदा उन्हें नहीं जाने देंगीं। फिर भी जब से कृष्ण मथुरा को जाने लगे तो कहा जाता है कि गोपियाँ उनकी रथ के पहिए से लिपट गई। श्रीकृष्ण में बहुत आकर्षण था। वह बोल उठे, 'उठो सखी, बात सुनो हम परसों आएंगे, परसों।'
जब गोपियों ने देखा कि कृष्ण के मन में हमसे अलग रहने की इच्छा है, तो उन्होंने हठ नहीं किया। गोपियाँ दौड़ी-दौड़ी मथुरा नहीं गई पीछे पीछे नहीं भागी। क्योंकि प्रेम की दुनिया में प्रेमी/प्रेयसी के मन की बात पूरी हो, यह भावना रहती है। प्रेम करने वाले की यही भावना होती है कि जिसे प्रेम करते हैं उसे सुख मिले उसके मन की बात पूरी हो।
आज तक ब्रज में रिवाज है कि 'परसों' शब्द का प्रयोग नहीं होता है।
राधे-राधे।
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