ईश्वर कोई प्रॉडक्ट या मिथक नहीं है !!
सत्यनारायण की कथा हो या फिर भागवत पाठ, देवी की चौकी हो या फिर अखंड रामायण- पुजारियों, पंडितों और कथा वाचकों ने ईश्वर को एक प्रॉडक्ट का रूप दे दिया है, फलां भगवान की पूजा इस तरह से करने में इतना श्रम और संसाधन लगेगा और बदले में फलां-फलां लाभ होगा। पूरा पैकेज है। और भक्त इस प्रॉडक्ट को श्रद्धा से खरीदते हैं। दोनों ही खुश हैं- यजमान भी और पुजारी भी।
किसी ने कहा है- पूजा-सेवा, नेम-व्रत सब गुड़ियन का खेल। जैसे छोटे बच्चे गुड़ियों से खेलते हैं, उन्हें सजाते-संवारते हैं, उनका ब्याह रचाते हैं, उसी प्रकार भक्त भी अपने ईश्वर का श्रृंगार करते हैं। और कभी रुक्मिणी से तो कभी सीता या पार्वती से उसका ब्याह रचाते हैं। भागवत कथा में तो यजमान कन्यादान भी करता है। इसके लिए श्रोताओं से दान-दहेज और गहने लेता है और उसे अपनी झोली में डाल लेता है।
सदियों से लोग अपने ईश्वर से अंध आस्थाओं और मिथकों के सहारे जुड़े हुए हैं। उनके भीतर हमेशा एक डर बना रहता है कि यदि कोई भूल हो गई तो ईश्वर दंड देगा। तो फिर ईश्वर को दयालु, कृपा निधान और सबका रक्षक क्यों कहा गया है? अंधविश्वास और अज्ञानता का अंधकार इतना गहरा है कि जो ईश्वर स्वयं प्रकाशमय है, उसके बारे में भी हमने कई भ्रांतियां गढ़ ली गई हैं। ईश्वर के नाम पर एक अंधी दौड़ चल रही है। और अनपढ़-गंवार लोगों से ज्यादा, पढ़ा-लिखा वर्ग इसमें उलझा नजर आता है।
हम साधारण लोग एक बार ब्याह रचाते हैं, साल में एक बार जन्मदिन मनाते हैं, लेकिन भागवत कथा तो जब-जब और जहां-जहां आयोजित होती है, हर बार जन्मोत्सव, विवाहोत्सव संपन्न होता है। यह मिथक नहीं तो और क्या है? जब परमेश्वर ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु देने को कहा, तो बंदा अपने पुत्र की ही बलि देने को तत्पर हो जाता है। और बलि के लिए ऐन वक्त एक बकरा आ जाता है और परमेश्वर पुत्र के बदले उसकी बलि स्वीकार कर लेता है। यह मिथक नहीं तो और क्या है? आज इसे कोई सचमुच कर के देखे।
हम साधारण लोग एक बार ब्याह रचाते हैं, साल में एक बार जन्मदिन मनाते हैं, लेकिन भागवत कथा तो जब-जब और जहां-जहां आयोजित होती है, हर बार जन्मोत्सव, विवाहोत्सव संपन्न होता है। यह मिथक नहीं तो और क्या है? जब परमेश्वर ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु देने को कहा, तो बंदा अपने पुत्र की ही बलि देने को तत्पर हो जाता है। और बलि के लिए ऐन वक्त एक बकरा आ जाता है और परमेश्वर पुत्र के बदले उसकी बलि स्वीकार कर लेता है। यह मिथक नहीं तो और क्या है? आज इसे कोई सचमुच कर के देखे।
कोलकाता के कामख्या मंदिर में देवी के भक्त मन्नत पूरी होने पर पशु बलि देते हैं। कितना अंधविश्वास है ईश्वर के नाम पर। क्या उस मूक प्राणी का रक्षक वह ईश्वर नहीं है? धर्म के पुजारी कहते हैं कि ईश्वर से डरो! कुछ अमंगल हो गया तो कहते हैं कि ईश्वर नाराज है, उसे खुश करने के लिए मंत्र-जाप करो, यज्ञ-हवन करो, तीर्थ-यात्रा करो और बलि दो ताकि ईश्वर संतुष्ट हो।
यदि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए महंगे चढ़ावा चढ़ाना जरूरी है, तो गरीब के लिए भगवान नाम की कोई चीज नहीं होगी! यदि पशु बलि से ईश्वर प्रसन्न होता है, तो पशुओं के लिए कोई ईश्वर नहीं होता होगा, वह सिर्फ आदमी के लिए होगा। असल में तो लोग सौदा करते हैं भगवान से, कि मेरा बच्चा हो जाए तो सवा मन मिठाई चढ़ाऊंगा, लॉटरी लग गई तो सोने का हार बनवा दंूगा। यही बच्चे भी सीख लेते हैं, हे भगवान! मुझे पास कर दो, एक किलो प्रसाद चढ़ाऊंगा। हमारे लिए ईश्वर का अर्थ अंधविश्वास और मिथक है, ऐसा मिथक जिससे संसार डरे। और इस डर को कायम रखने के लिए पाखंडी बाबा लोग सारे आयोजन करते हैं। ताकि भक्ति के नाम पर अंधविश्वासियों को खुलेआम लूट सकें।
ईश्वर तो सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एक चैतन्य सत्ता है जो अनुभव गम्य है। अंधविश्वास व झूठे मिथकों को दूर हटाने का एक सरलतम उपाय है 'ईश्वर को जानना' न कि मानना! दुर्भाग्य से हम सिर्फ उसे मानते हैं, जानने की कोशिश नहीं करते। जब आप उसे जान लेते हैं तो अज्ञान का अंधकार अपने आप नष्ट हो जाता है। लेकिन जानेंगे उसे अपने अनुभव से ही, कर्मकांड से नहीं।
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