स्त्री की स्वतंत्रता :~ तीन तलाक के बहाने !!

21वीं सदी में भी भारत में महिला स्वतंत्रता की बात करना किसी छलावे से कम नहीं है। भले ही आज स्त्री समाज की स्वतंत्रता के लिए सरकार एव बहुत सारे सामाजिक संगठन कई तरह के कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी आवाज को उठा रहे हैं और यह माना जा रहा है कि आज की महिलाएं पूर्णतया स्वतंत्र हैं जबकि वस्तुस्थिति ठीक इसके विपरीत है क्यूंकि महिलाएं स्वतंत्रता से कोसों दूर हैं।
          नारी स्वतंत्रता का मुख्य अर्थ होता है “निर्णय लेने की स्वतंत्रता” न की समाज के नियम को मनाने की बाध्यता। मात्र अपने मन के अनुरूप आधुनिक परिधानों को पहन लेना, बाहर घूम-फिर लेने को स्वतंत्रता से परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आज भी महिलाएं उस आजादी से वंचित हैं जो उन्हें मिलनी चाहिए थी। आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं को निर्णय लेने की आजादी या बराबरी का दर्जा उन्हें नहीं मिल सका है।
           आज माननीय सर्वोच्च न्यायलय की खंडपीठ ने 3:2 के माध्यम से मुस्लिम समुदाय में पिछले 1400 वर्षों से प्रचलित कुप्रथा को अमानवीय मानते हए इसे नए कानून बनाए जाने तक के लिए निरस्त कर दिया है। हालाँकि मुख्य न्यायाधीश ने तीन तलाक प्रथा के पक्ष में अपनी सहमती दर्ज की है। जस्टिस कुरियन जोसेफ ने बहुत ही गंभीर मुद्दे को उठाते हुए कहा जब तीन तलक इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है और इस प्रथा को संविधान के अनुच्छेद 25(मौलिक अधिकार) का संरक्षण हासिल नहीं है तो इसे निरस्त कर दिया जाना चाहिए। जस्टिस ललित ने स्पष्ट तौर पर तीन तलाक पर अपनी राय जाहिर करते हुए कहा कि “हर वह प्रथा अस्वीकार्य है, जो कुरान के मूल तत्व के खिलाफ है।“
          माननीय सर्वोच्च न्यायलय निश्चित ही बहुत स्वागत योग्य है उन महिलाओं के लिए जो एक अनजाने भय के अधीन जीने के लिए वर्षों से लाचार थीं। परन्तु हमें बहुत ही गंभीरतापूर्वक यह विचार करना ही पड़ेगा कि क्या मात्र इस फैसले से मुस्लिम समाज की महिलाये स्वतंत्र हो गयीं हैं?
          तलाक जैसी कुप्रथा के मूल मुद्दों पर हमें विचार करना होगा, मनोवैज्ञानिकों एव समाजशास्त्रियो से सहयोग लेनी होगी उन वजहों को तलाशने में कि क्यों घर टूटते हैं। कोई भी पुरुष या स्त्री जानबूझ कर अपना घर नहीं तोडना चाहता है, परिस्थितियां ऐसी उत्पन्न हो जाती है जब एक-दुसरे के साथ जीना दुश्वार होने लगता है। मैं व्यक्तिगत तौर पर हिन्दू डॉक्टर, इंजिनीअर, वकील जैसे प्रतिष्टित पद पर आसन महिलाओं को सिर्फ घर बचाने के लिए पिटते हुए देखा है, जाना है।
          तीन तलाक जैसी प्रथा तो हिन्दू समाज में नहीं हैं तो क्या हिन्दू समाज की महिलाएं पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं? क्या उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार जीने और सोचने की स्वतंत्रता मिली हुई है? सिर्फ 10% शहरी हिन्दू महिलाओं को देख कर यह निर्णय लेना की मुस्लिम महिलाओं की अपेक्षा हिन्दू महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता अच्छी है कुछ अतिश्योक्ति होगी।
          आज हमें मुस्लिम और हिन्दू समाज की महिला के तौर पर नहीं अपितु महिला के तौर पर उनका मूल्याङ्कन हमें भी करना होगा और खुद महिलाओं को भी करनी होगी कि वे कितनी स्वतंत्र हैं अपने घर-परिवार और समाज के लिए निर्णय लेने में।
          आज भी महिलाओं को प्रमुख मुद्दों पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं प्राप्त है, चाहे वह कोई भी समुदाय हो। तलाक जैसे खास मुद्दों के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जो महिला स्वतंत्रता पर सवाल खड़ा करता है।
जाते-जाते यह भी कहना चाहूँगा कि तीन तलाक जैसे गंभीर मुद्दे पर माननीय न्यायलय ने निर्णय दिया है इसे राजनीतिक दल की विजय का मुद्दा न बनाएं। खास व्यक्ति, संस्था या दल को श्रेय देने से विषय की गंभीरता समाप्त हो जाती है। 1987 के सर्वोच्च न्यायलय के उस फैसले(शाहबानो प्रकरण) को हमें नहीं भुलाना चाहिए जिसे संसद में तत्कालीन प्रधानमत्री राजीव गाँधी ने नियम बना कर पलट दिया था।

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