‘वंदे मातरम’ कहने में शर्म कैसा' !!

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत में ना जाने कौन सी बयार बहने लगती है कभी कभी। कभी कोई फासीवादी कहा जाने लगता है, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर हंगामा हो जाता है, तो कभी ‘भारत माता की जय’ के नाम पर तो कभी बंदे मातरम के बोलने पर। एक सांसद कहता है कि मैं बंदूक की नोक पर भी बंदे मातरम नही बोलूंगा, वहीं बिहार का एक मुस्लिम विधायक जय श्री राम का बड़े जोर-शोर से उद्घोष करता है, परंतु जब उसके खिलाफ फतवा जारी होता है तो माफी भी मांग लेता है। पता नहीं क्यों, लग रहा है कि इन सब मुद्दों को उठाकर, हम सभी असल मुद्दों से दूर भागना चाहते हैं..।
वह भी एक समय था जब देश की आजादी के लिए बंदे मातरम कहने पर अंग्रेजी हुकूमत भारतीयों की चमड़ी उधेड़ देती थी और आज आजादी के 70 वर्षों के पश्चात हमारी ऐसी स्थिति हो गई है भारतीय लोकतंत्र के मंदिर में बैठने वाला व्यक्ति यह कहता है कि बंदे मातरम नही बोलूंगा, भारत माता नही कहूंगा क्योंकि इस्लाम मे यह मना है। क्या भारत सिर्फ हिंदुओं का देश है? कभी जानने की कोशिश की है इन मुसलमानों ने, जितनी तवज्जो इन्हें इस मुल्क में मिली है उतनी आदर दुनिया के अन्य मुल्कों में शायद ही मिलती होगी।
भारत हमारा राष्ट्र है। मातृभूमि को हम ‘मां’ मानते रहे हैं। देश सिर्फ़ कागज़ का नक़्शा नहीं होता। उसके साथ हमारा एक भावुक रिश्ता होता है। चूंकि भावनात्मक रूप से मां के हम अधिक करीब होते हैं, इसलिए देश को या उस भूमि को जहां हम जन्म लेते हैं, मातृभूमि कहा गया। अगर कभी हमें किन्ही कारणों से अपने बड़े भाई से मतभेद हो जाएगी तो क्या हम माँ को माँ कहना छोड़ देंगे। अपने भाई-बहनों की इज्जत सरेराह नीलाम कर देंगे। ऐसा तो शायद इस्लाम मे भी नही सिखाया जाता है। अगर हमारे रगों में सनातन धर्म से मिली हुई प्रेम-भाईचारे की खून प्रवाहित हो रही है तो आपके भी धमनियों में भी तो मुगलिया तहजीब दौड़ती है। एक दौर था जब भारत गंगा-जमुनी तहजीब के लिए ही जानी -पहचानी जाती थी। कौन इनकार कर सकता है हामिद की बलिदानी को , उस बिस्मिल्लाह को कौन आदर देना भुला है आज भी जिसकी शहनाई से बनारस की सुबह हुआ करती थी।
‘बंदे मातरम’ का नारा अबू आजमी और उनके अनुयायी नहीं लगाएंगे, तो न लगाएं। इससे माँ भारती की प्रतिष्ठा और गरिमा को कोई फर्क नहीं पड़ता। भारतीय लोकतंत्र और संप्रभुता बौनी नहीं होती। समाज विक्षिप्त लोगो के कहने से नही निर्देशित होती है। ये कुछ विक्षिप्त लोग ही समाज को तोड़ने -फोड़ने का काम करते हैं।जैसे आततंकवाद का कोई धर्म और महजब नही होता है वैसे ही विक्षिप्त लोगों का कोई अपना धर्म और ईमान नही होता। मुसलमान में अबू आजमी, ओवैसी, आजम खान जैसे विक्षिप्त लोग हैं तो हमारे यहां भी इनके जैसे पागलो की कमी नही है। आपके पागलो और हमारे पागलो में एक बेसिक अंतर है कि मुसलमान दूसरे धर्म को बुरा कहते है और हिन्दू धर्म के विक्षिप्त लोग अपने ही धर्म को गाली देते हैं। दरअसल इन्हें पता ही नही होता है कि ये बोल क्या रहे हैं।
जब प्रातः हम घर से बाहर निकलते हैं तो क्या कभी मन मे यह ख्याल आता है क्या कि हम हिन्दू रिक्शा वाले के रिक्शे पे ही बैठेंगे या जो बस चला रहा ड्राइवर है वह मुसलमान ही हो। हम पड़ोस के दुकानदार का धर्म जानते है न कि मॉल में बैठे सेल्स मेन की। क्या कोई KFC या MacDonald में प्रवेश करने के पहले तनिक भी हिन्दू मुसलमान का ख्याल आता है मन में। ये धूर्त राजनीतिज्ञयों की एक सम्मिलित साजिस है कि समाज को धर्म ओर जातिवाद के नाम पर बांटे रखने की।
कई नेता और मुखौटाधारी धर्मनिरपेक्ष प्रवक्ता तो ‘वंदे मातरम्’ भी बोलने से परहेज करते हैं। विडंबना है कि ‘मां’ का नाम लेने में ही शर्म आती है। ऐसे शब्द बोल देंगे, तो फिर धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा? अपनी जन्मभूमि, अपनी मातृभूमि, अपनी राष्ट्रीय मां का उच्चारण करने में ही आपत्ति है, तो उनसे ज्यादा बदनसीब नागरिक कौन होगा?
‘भारत माता की जय’ नहीं बोलूंगा, का राजनीतिक ध्रुवीकरण नहीं होना चाहिए। कमोबेश यह विवेक जनता को दिखाना है। आप क्या बोलना चाहते हैं और क्या नहीं, इसकी संवैधानिक आजादी है, लेकिन गरज-बरस कर सामाजिक शांति को बर्बाद क्यों किया जाए?
चिंता इस बात की नहीं है कि कोई भारत माता की जय बोलता है, या नहीं। चिंता इस बात की है, कि आखिर क्यों हम इन नकारात्मक बातों में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं? आखिर क्यों हम चिंतन में अक्षम और व्यर्थ बहस में सक्षम होते जा रहे हैं?
साहिर लुधियानवी की एक पंक्ति जिसे प्रायः हम सभी गुनगुनाते हैं - ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको "सन्मति" दे भगवान ! मगर हमने कभी "सन्मति" को आचरण में लाना उचित नही समझा।
वंदे मातरम।

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