नक्सलवाद: सामाजिक व्यवस्था का घुन !!

उम्मीद करता हूँ कि हम लोगों में से अधिकतर लोग 2007 के बीजापुर (छत्तीसगढ़) जिले के रानीबोदली में नक्सलियों द्वारा पुलिस के 55 जवान, 2008 के नायगढ़ (ओड़िसा) नक्सली हमले में 14 पुलिसकर्मियों, 2009 के गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) नक्सली हमले में 15 CRPF के जवान, 2010 में नक्सलियों द्वारा त्रिवेणी एक्सप्रेस और कोलकत्ता-मुंबई मेल पर हमले को (जिसमें लगभग 150 यात्री मारे गए), 2010 में ही पश्चिमी मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) पैरामिलिट्री के 24 जवान, पुनः नक्सली हमले में दंतेवाडा (छत्तीसगढ़) में CRPF के 74 जवान, 2011 विस्फोट में 1 अधिकारी समेत 9 पुलिसकर्मी, सुकमा(छत्तीसगढ़) दरभा घाटी में सलवा जुडूम के प्रवर्तक महेंद्र कर्मा और छत्तीसगढ़ के कांग्रेस प्रमुख नंद कुमार पटेल सहित 27 लोगों की हत्या और मार्च 2017 में पुनः नक्सलियों द्वारा 11 CRPF के जवानों की हत्या को भूल चुके होंगे, क्योंकि हमारे देश में ज्यादातर लोगों को भूलने की खतरनाक बीमारी है। 
 24 अप्रैल को पुनः छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में CRPF के 25 जवानों की हत्या के पश्चात देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, गृहमंत्री, रक्षामंत्री जैसे माननीय ने ठीक उसी तरह से विधवा-विलाप शुरू कर दिया है जैसा कि पिछली घटनाओं के घटित होने पर तत्कालीन सरकारें करती रहीं हैं। सवाल यह उठता है कि जब देश के आधे से अधिक राज्य नक्सलवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं, तब हमारी सरकार कर क्या रही है?इस मुद्दे पर सरकार के कानों में जूँ तक नही रेंगती?
 
निकम्मे सरकारी नेता, जो वोटों की राजनीति करते हैं और जनता के बीच में नफरत फैलाते हैं, वे एक भ्रम फैलाते हैं कि जवान शहीद हुए, असलियत तो यह है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में हमारे जवान कुत्तों की मौत मारे जाते हैं। हर पल डर के साये में अपना एक-एक कदम बढ़ाते हमारे जवानों को पता ही नही चलता कि उनकी मौत किस कदम पर लिखी है। मजाक लगता है जब सरकार इस तरह के नक्सली हमलों के बाद मारे गये जवानों को शहीद का दर्जा देती है।
 
गीदड़ हमेशा झुंड में हमला करते हैं, क्या होगा इन नक्सलियों का जब हमारी वायु सेना इन नक्सलियों को कुछेक घंटे में उनके अस्तित्व को ही समाप्त कर देगी। कई दशकों से चल रहे नक्सलवादियों के इस खूनी खेल को क्या कहा जायेगा, स्वतंत्रता के लिये संघर्ष या उनका बचाव करते हुए ये, कि उनकी हिंसात्मक कार्यवाहियाँ विकास के दोहरे मापदंड और पुलिस अत्याचार के फलस्वरूप उपजे आक्रोश का नतीजा हैं? इस बात से इनकार नही किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित कुछ क्षेत्रों में विकास की गति बहुत धीमी है, पर विकास की गति देश के बहुत सारे भागों में धीमी है, वहाँ गरीबी है, भूख है, लाचारी है, पर क्या वहाँ भी लोग हथियारों के बल पर विकास लाने का प्रयास करें? ऐसे तो हमारा पूरा देश गृहयुद्ध की चपेट में आ जायेगा। हमारे समाज में गरीबी और बेरोजगारी से भी ज्यादा गैरबराबरी बढ़ी है। आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ देश में भ्रष्टाचार में भी भयानक वृद्धि हुई है। जल, जंगल और जमीन के मुद्दे आज सब जगह चर्चा में हैं। आदिवासियों और गरीबों को आज अपने इलाकों से बेदखल किया जा रहा है। उनकी रोजी-रोटी के साधन छीने जा रहे हैं। पर्यावरण की कीमत पर आज धड़ाधड़ विकास किया जा रहा है और बड़ी-बड़ी कंपनियाँ जमीन से खनिज संपदा निकालने की होड़ में हैं।
 
वनों को काटा जा रहा है। शहरीकरण के कारण खेती की जमीनों का अधिग्रहण किया जा रहा है, जिससे खेतिहर मजदूर शहरों की ओर भागने को विवश हो रहे हैं। गरीब को हमारे समाज में न्याय नहीं मिलता। बदकिस्मती से सरकार भी इस समस्या को कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में ही लेती है।  इनमें मुट्ठी भर देश विरोधी भी हो सकते हैं, मगर ज्यादातर तो गरीब आदिवासी लोग ही इस आंदोलन में शामिल हैं। इसलिए राज्य को इन्हें समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाना चाहिए और वे समस्त कारण समाप्त करने चाहिए जो एक निर्दोष नागरिक को नक्सली बनाते हैं।
 
हथियारों के दम पर विकास नही लाया जा सकता न ही हथियार किसी समस्या की जड़ हैं, सबसे बड़े गुनहगार हमारे नेता और हमारी सरकार है, जो पहले नक्सलवाद जैसी समस्या को पनपने का मौका देती है और बाद में जब वह भस्मासुर बनकर खुद पर ही खतरा बन मंडराती है तब भी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में अपना सिर डाल कर निश्चिंत रहती है।

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