राहुल सांकृत्यायन : एक फक्कड़ यायावर जो अन्वेषी था !!
"सैर कर दुनिया की गाफिल जिदंगानी फिर कहां,
औ' जिंदगी जो गर रही नौजवानी फिर कहां।"
एक व्यक्ति कितने आयामों वाला हो सकता है इसे समझने के लिए हमें राहुल सांकृत्यायन को पढना पड़ेगा। एक सचमुच का क्रान्तिकारी व्यक्तित्व जिसने अपने जीवन में ही असंभव को संभव कर दिखाया। एक ऐसा व्यक्ति जो लेखन के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहा। भारतीय ही नहीं दुनिया की शायद ही किसी भाषा में कोई राहुल सांकृत्यायन जैसा लेखक होगा। किसी एक लेखक ने किसी एक भाषा को विविध रूप से इतना नहीं समृद्ध किया होगा जितना अकेले राहुल ने हिन्दी को।
राहुल यायावर थे, साहित्यकार थे, इतिहासकार थे, असाधारण अध्येता थे, पुरातत्वेता थे, भाषाविद् थे, किसान नेता थे और भी बहुत कुछ, सब एक साथ, परन्तु सब से बढ़ कर एक बेहतरीन इन्सान थे।
राहुल सांकृत्यायन महापंडित थे। लेकिन उनके पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी। राहुल जी ने औपचारिक रूप से बस मिडिल किया था। जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पता चला कि राहुल जी की हिंदी में लिखी किताब 'मध्य एशिया का इतिहास' आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी के कोर्स में है, तो उन्होंने अपने शिक्षा मंत्री कबीर को कहा कि राहुल जी को किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रख लो। मगर पारंपरिक अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के हामी हुमायूं कबीर ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि राहुल जी को कुलपति ही बना दो मगर कबीर साहब नहीं माने। यह थी उनके महापंडित होने की भारत में कदर।
पर इन्हीं अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के लिहाज से अनपढ़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन को श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग से बौद्घ धर्म पढ़ाने का न्यौता आया। राहुल जी वहां पहुंच गए और राहुल जी अनुराधापुर स्थित विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर हो गए। राहुल जी को सोवियत सरकार ने भी बुलाया था मगर भारत में उनकी कोई कद्र नहीं हुई।
राहुल जी उर्फ केदारनाथ पांडेय जिनका नारा था- चरैवति! चरैवति! यानी चलते रहो! चलते रहो!
आत्मशक्ति व्यक्ति के विकास की कितनी अनन्त सम्भावनाएं खोल सकती है राहुल इसके अनन्य प्रमाण थे। वस्तुगत स्थितियां शायद ही कभी उनके अनुकूल रही हों पर आत्मगत शक्ति की मानो उनके हाथ में लगाम हो- जिधर चाहा मोड़ दिया।
हिंदी साहित्य के जिन दो मनीषियों ने मुझे सबसे ज्यादा आकृष्ट किया उनमे से एक अज्ञेय थे तो दूसरा राहुल सांकृत्यायन।साहित्य की ऐसी कोई भी विधा नहीं जिस पर राहुल ने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो। हमें राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकों में 'मध्य एशिया का इतिहास' अवश्य पढ़ना चाहिए।
राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:
“ मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।
महापंडित राहुल के 124वें जन्मदिन पर विनम्र नमन।
राहुल यायावर थे, साहित्यकार थे, इतिहासकार थे, असाधारण अध्येता थे, पुरातत्वेता थे, भाषाविद् थे, किसान नेता थे और भी बहुत कुछ, सब एक साथ, परन्तु सब से बढ़ कर एक बेहतरीन इन्सान थे।
राहुल सांकृत्यायन महापंडित थे। लेकिन उनके पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी। राहुल जी ने औपचारिक रूप से बस मिडिल किया था। जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को पता चला कि राहुल जी की हिंदी में लिखी किताब 'मध्य एशिया का इतिहास' आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी के कोर्स में है, तो उन्होंने अपने शिक्षा मंत्री कबीर को कहा कि राहुल जी को किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रख लो। मगर पारंपरिक अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के हामी हुमायूं कबीर ने साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि राहुल जी को कुलपति ही बना दो मगर कबीर साहब नहीं माने। यह थी उनके महापंडित होने की भारत में कदर।
पर इन्हीं अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के लिहाज से अनपढ़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन को श्रीलंका स्थित अनुराधापुर विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग से बौद्घ धर्म पढ़ाने का न्यौता आया। राहुल जी वहां पहुंच गए और राहुल जी अनुराधापुर स्थित विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर हो गए। राहुल जी को सोवियत सरकार ने भी बुलाया था मगर भारत में उनकी कोई कद्र नहीं हुई।
राहुल जी उर्फ केदारनाथ पांडेय जिनका नारा था- चरैवति! चरैवति! यानी चलते रहो! चलते रहो!
आत्मशक्ति व्यक्ति के विकास की कितनी अनन्त सम्भावनाएं खोल सकती है राहुल इसके अनन्य प्रमाण थे। वस्तुगत स्थितियां शायद ही कभी उनके अनुकूल रही हों पर आत्मगत शक्ति की मानो उनके हाथ में लगाम हो- जिधर चाहा मोड़ दिया।
हिंदी साहित्य के जिन दो मनीषियों ने मुझे सबसे ज्यादा आकृष्ट किया उनमे से एक अज्ञेय थे तो दूसरा राहुल सांकृत्यायन।साहित्य की ऐसी कोई भी विधा नहीं जिस पर राहुल ने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो। हमें राहुल सांकृत्यायन की पुस्तकों में 'मध्य एशिया का इतिहास' अवश्य पढ़ना चाहिए।
राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:
“ मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव–वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते।
महापंडित राहुल के 124वें जन्मदिन पर विनम्र नमन।
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