जन्मदिन के बहाने


असमय ही बाल सफ़ेद हो गए हैं। आज तक इन्हें रंगने का कोई रंग भी नहीं बना बाज़ार में,जो जाएँ खरीदें और रंग दें।अब इन्होने तो सोच लिया है इसका तो जनाजा निकाल कर ही रहना है, तभी तो जब चाहे जहाँ चाहे दगा दे जाता है खासतौर से तब जब किसी से बात करता हूँ , शब्द नदारद। दिमाग में होते हुए भी अदृश्य। एक अजीब सी बेचैनी से घिर उठता हूँ। 

यूँ आये दिन सबसे कहता हूँ मुझे याद नहीं रहता लेकिन सबके लिए वो भी महज एक साधारण बात है फिर चाहे भूलने की वजह से जाने कितनी महाभारत हुईं घर में लेकिन तब भी सबके लिए इसमें कुछ ख़ास नहीं तो मैं ही भला क्यों सोचूं कि मुझे कुछ हुआ है। ठीक हूँ , ऐसा तो उम्र के साथ होता ही है, सब कहते हैं, मान लेता हूँ। क्या सच में ऐसा होता है ? क्या ये किसी रोग का कोई लक्षण तो नहीं ? डरता हूँ कभी कभी। जब सोचता हूँ ऐसा न हो किसी दिन अपना नाम ही भूल जाऊँ, अपना घर, अपना पता और अपने रिश्ते। होता है कभी कभी आभास सा। जैसे भूल सा गया हूँ सब कुछ। एक कोरा कागज़ बिना किसी स्मृति के। तब ? तब क्या होगा? 


आवाज़े घोषणापत्र होती हैं जीवन्तता का तो स्मृति उसकी धड़कन।बिना धड़कन के कैसा जीवन ? शून्य का पसर जाना तो ज़िन्दगी नहीं। विस्मृति से नहीं होंगे चिन्हित रास्ते।जानता हूँ। तो फिर क्या करूँ, कौन सा उपाय करूँ जो खुद को एक अंधी खाई में उतरने से बचा सकूँ। 


न अब ये मत कहना लिख कर रखो तो याद रहता है क्योंकि तब भी याद रहना जरूरी है कि कहीं कुछ लिखा है। गाँठ मार लो, मगर याद तब भी धोखा दे जाती है आखिर ये गाँठ बाँधी क्यों ?


एक अजीब सी सिम्फनी है ज़िन्दगी की। जब यादों में उगा करते थे सुरमई फूल तब सोचा भी नहीं था ऐसा वक्त आएगा या आ सकता है। आज लौटा नहीं जा सकता अतीत में लेकिन भविष्य के दर्पण से मुँह चुराने के अलावा कोई विकल्प नज़र नहीं आता।
वो मेरा कौन सा वक्त था ये मेरा कौन सा वक्त है। दहशत का साया अक्सर लीलता है मुझे। यूं उम्र भर विस्मृत करना चाहा बहुत कुछ लेकिन नहीं हुआ।मगर आज विस्मृति का दंश झकझोर रहा है।आज विस्मृति के भय से व्याकुल हैं मेरी धमनियाँ और उनमे बहता रक्त जैसे यहीं रुक जाना चाहता है। आगे बढ़ना भयावह समय की कल्पना से भी ज्यादा भयावह प्रतीत हो रहा है।
मैं बैठा हूँ।कहाँ, नहीं मालूम।शायद कोई कमरा। कोई नहीं वहां।शायद मैं भी नहीं। एक शून्य का शून्य से मिलन। जहाँ होने को सूर्य का प्रकाश भी है और हवा का स्पर्श भी मगर नहीं है तो मेरे पास उसे महसूसने की क्षमता। शब्द, वाक्य सब चुक चुके। जोर नहीं दे सकता स्मृति पर।जानता जो नहीं जोर देना होता है क्या ? ये एक बिना वाक्य के बना विन्यास है जहाँ कल्पना है न हकीकत। वस्तुतः अंत यहीं से निश्चित हो चुका है क्योंकि अवांछित तत्व बेजान वस्तु अपनी उपादेयता जब खो देते हैं, उनके सन्दर्भ बदल जाते हैं। शायद यही है मेरा कल जो आज मुझसे मिलवा रहा है।भविष्यद्रष्टा तो नहीं लेकिन बदलते सन्दर्भ बोध करा जाते हैं आने वाली सुनामियों का।


स्मृति ह्रास तो विलाप का भी मौका नहीं देता इसलिए शोकमुक्त होने को जरूरी था ये विधवा विलाप।समय अपनी चाल चलने को कटिबद्ध है।

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