मेरे हमसफर !!
मेरे हमसफर,
किसी ने पूछा था – यह सड़क कहाँ जाती है?
जवाब मिला था – कहीं नहीं जाती है। यहीं पड़ी रहती है। सचमुच सड़क कहीं नहीं जाती। भाग्यशाली है या उदासीन। पसरी रहती है एक जगह। निर्वाक। निःस्पंद। बाहें फैलाये। चाहे जो भटक आये आगोश में। उसे परवाह नहीं।
यात्री भी तो कम उदासीन नहीं होते। सड़क की बाँहों में पनाह लेंगे, उसी की छाती को रौंदेंगें और उसकी तरफ नजर उठाकर देखेंगें तक नहीं। अपने-अपने सफर में डूबते चले जायेंगें, उन्हें क्या हमसफ़र कहना ठीक है।
सड़क का क्या? वह तो सफर पर निकलती ही नहीं। उसकी न तो शुरुआत है, न अंत है। न वह कहीं से चली है, न उसे कहीं जाना है।
उसे हमसफ़र की क्या जरुरत?-
मैं सड़क ही तो हूँ। अंत से उदासीन। पर शुरुआत? मुझे हर शुरुआत याद है। मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ मेरा सफर कब और कैसे शुरू हुआ।
मुझे हमसफ़र की जरुरत है। पर मेरा कोई मुकाम नहीं है। तुम मेरे साथ सफर के आखीर तक नहीं चल सकती।
बस, जबतक मेरी कहानी ख़त्म न हो जाये, मेरे साथ चलते रहना। सफर ख़त्म होने से पहले कहानी ख़त्म करने की कोशिश करूँगा। तुम्हारे सफर की बात कर रहा हूँ।
मेरा सफर तो कहानी के साथ है। जब कहानी ख़त्म होगी सफर भी ख़त्म हो जायेगा। पर मैं कुछ वक्त बचा रहूँगा। कहानी ख़त्म करके तुमसे अलग हो सड़क के दुसरे छोर पर चला जाऊंगा। तुम्हारे सफर को नज़र नहीं लगेगी।मैं कुछ दूर चलकर तुम्हारी आँखों से ओझल हो जाऊंगा। अपना सफर अकेले तय करूँगा। तुम्हे खबर न होगी। डरना मत, तुम मेरे सफर की साथी जरुर बनोगी, पर मंजिल की मुंतजिर नहीं।
एक बात है। कहानी तुम्हे सुना जरुर रहा हूँ, पर मेरे दिमाग में सब कुछ गडमड हो चूका है। वह कब थी, कब वह नहीं थी; कब पहले-पहल मेरे जिंदगी में आयी, मुझे ठीक से याद नहीं। मेरे लिए यह तस्सब्बुर करना नामुमकिन है कि ऐसा भी कोई वक्त था जब वह नहीं थी, तब क्या मैं था?
इसलिए बुरा न मानना, मेरी कहानी के हर पहलु में वह रहेगी।
किसी ने पूछा था – यह सड़क कहाँ जाती है?
जवाब मिला था – कहीं नहीं जाती है। यहीं पड़ी रहती है। सचमुच सड़क कहीं नहीं जाती। भाग्यशाली है या उदासीन। पसरी रहती है एक जगह। निर्वाक। निःस्पंद। बाहें फैलाये। चाहे जो भटक आये आगोश में। उसे परवाह नहीं।
यात्री भी तो कम उदासीन नहीं होते। सड़क की बाँहों में पनाह लेंगे, उसी की छाती को रौंदेंगें और उसकी तरफ नजर उठाकर देखेंगें तक नहीं। अपने-अपने सफर में डूबते चले जायेंगें, उन्हें क्या हमसफ़र कहना ठीक है।
सड़क का क्या? वह तो सफर पर निकलती ही नहीं। उसकी न तो शुरुआत है, न अंत है। न वह कहीं से चली है, न उसे कहीं जाना है।
उसे हमसफ़र की क्या जरुरत?-
मैं सड़क ही तो हूँ। अंत से उदासीन। पर शुरुआत? मुझे हर शुरुआत याद है। मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ मेरा सफर कब और कैसे शुरू हुआ।
मुझे हमसफ़र की जरुरत है। पर मेरा कोई मुकाम नहीं है। तुम मेरे साथ सफर के आखीर तक नहीं चल सकती।
बस, जबतक मेरी कहानी ख़त्म न हो जाये, मेरे साथ चलते रहना। सफर ख़त्म होने से पहले कहानी ख़त्म करने की कोशिश करूँगा। तुम्हारे सफर की बात कर रहा हूँ।
मेरा सफर तो कहानी के साथ है। जब कहानी ख़त्म होगी सफर भी ख़त्म हो जायेगा। पर मैं कुछ वक्त बचा रहूँगा। कहानी ख़त्म करके तुमसे अलग हो सड़क के दुसरे छोर पर चला जाऊंगा। तुम्हारे सफर को नज़र नहीं लगेगी।मैं कुछ दूर चलकर तुम्हारी आँखों से ओझल हो जाऊंगा। अपना सफर अकेले तय करूँगा। तुम्हे खबर न होगी। डरना मत, तुम मेरे सफर की साथी जरुर बनोगी, पर मंजिल की मुंतजिर नहीं।
एक बात है। कहानी तुम्हे सुना जरुर रहा हूँ, पर मेरे दिमाग में सब कुछ गडमड हो चूका है। वह कब थी, कब वह नहीं थी; कब पहले-पहल मेरे जिंदगी में आयी, मुझे ठीक से याद नहीं। मेरे लिए यह तस्सब्बुर करना नामुमकिन है कि ऐसा भी कोई वक्त था जब वह नहीं थी, तब क्या मैं था?
इसलिए बुरा न मानना, मेरी कहानी के हर पहलु में वह रहेगी।
अश्रुपूरित नमन मंजू
................नीरज
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